हीरा फेरी – सुरेन्द्र मोहन पाठक

रेटिंग : 4.5/5
उपन्यास अप्रैल 21 2018 से मई 1 2018 के बीच पढ़ा गया
उपन्यास 1 सितम्बर 2018 से 4 सितम्बर 2018 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक
प्रकाशक : हार्पर कॉलिंस
पृष्ठ संख्या: 352
आईएसबीएन :9352644433/9789352644438
श्रृंखला : जीत सिंह #11

हीरा फेरी

हीरे जगमग जगमग हीरे। चमचमाते हीरे। ऐसे हीरे जो किसी की भी आँखें चोंधियाने और ईमान डोलाने के लिए काफी थे। यही वह  बीस करोड़ के हीरे थे।

पर ये हीरे मुंबई के क्राइम बॉस अमर नायक की मिल्कियत थे। और कायदे से उसके पास आसानी से आ जाने चाहिए थे। पर मुंबई जैसे शहर में – जहाँ हर कोई ऊँचा उड़ने के फिराक में रहता है, एक मौका मिलने के फिराक में रहता है, चीज कायदे से कहाँ होती है। इधर भी नहीं हुई। हीरों को जहाँ पहुँचना था वो  उधर न पहुँचे।

परिस्थिति कुछ ऐसी बनी कि पंगे से दूर रहने की कसम खाए हुए जीते की झोली में यह हीरे गिरे।

वह  हीरे अब जीत सिंह के लिए गले की ऐसी हड्डी बन चुके थे जिन्हें न वह न उगल पा रहा था और न निगल ही पा रहा था। वहीं उन हीरों की तलाश में कुछ दूसरे लोग भी थे जिनके हत्थे अगर जीत सिंह चढ़ता तो उसकी शामत आनी ही आनी थी।

जीत सिंह खुद भी हारते हारते थक चुका था। अब वो कुछ जीतना भी चाहता था। इसलिए वह इन हीरों से कुछ फायदा निकलवाना चाहता था।

आखिर हीरे जीत के पास कैसे आये? हीरे के पीछे पड़ी पार्टी कौन थीं?

इस हीरा फेरी का क्या नतीजा निकला? क्या जीत सिंह आखिर कुछ जीत पाया?

इन सब प्रश्नों का जवाब आपको इस उपन्यास को पढ़कर ही मिलेंगे।

मुख्य किरदार:
अमर नायक – मुम्बई अंडरवर्ल्ड का एक बड़ा बॉस
नवीन सोलंकी – अमरनायक का दायाँ हाथ
शिशिर सावंत – अमर नायक गैंग का एक आदमी
जोकम फर्नांडो  – अमर नायक गैंग का एक आदमी
हुसैन डाकि – दुबई के भाई लोग और अमर नायक के लिए काम करने वाला आदमी जो हीरे की खेप लाने वाला था
अलीशा वाज़ – जोकम की पत्नी
सुहैल पठान और विराट पांड्या – बल्लू कन्नौजिया गैंग के दो प्यादे जो अपने बॉस के मरने के बाद खुद का गैंग बनाने के लिए हाथ पाँव चला रहे थे
कीरत मेधवाल उर्फ़ जरनैल – जुर्म की दुनिया का पुराना आदमी जो अपने जमाने में इब्राहिम कालिया का प्यादा रह चुका था और इस वक्त इन बिखरे हुए लोगों को इकट्ठा करने में लगा हुआ था
वीरेश हजारे – कस्टम ऑफिसर जो कि अमर नायक से मिला हुआ था
जीतसिंह – टैक्सी ड्राईवर और एक वाल्ट बस्टर
बेजान मोरावाला – बहरामजी कांट्रेक्टर नाम के अंडरवर्ल्ड बॉस और नेता का फ्रंट
पक्या – जीत सिंह का साथी जिसने उसे धोखा दिया था
निकोल मेंडिस – अलीशा की पड़ोसी
गाइलो – जीत सिंह का दोस्त और साथ टैक्सी ड्राईवर
मिश्री – एक सेक्स वर्कर जो कि जीत सिंह की दोस्त थी
डिकोस्टा –  जीत का दोस्त जो उसकी चाल में रहता था
जयंत ढोलकिया – ट्रांसपोर्ट कंपनी का मालिक जिसके पास से जीत सिंह ने टैक्सी ली थी
मगन कुमरा और किशोर पूनिया – सुहैल पठान और विराट पांड्या के साथ काम करने वाले आदमी
शम्सी, अब्दी, किलम,राजन,अयूब – गाइलो और जीत सिंह के टैक्सी ड्राईवर दोस्त
जॉन – गाइलो का बेवड़ा अड्डा फ्रेंड
खालिद  – बहराम जी का ख़ास आदमी
तारानाथ – अमर नायक का नौकर
अबरार – बहरामजी कांट्रेक्टर की गैंग का आदमी जिसकी वाकिफियत जरनैल के साथ थी
डेविड परदेसी – गाइलो का एक दोस्त
भरत श्रेष्ठ – अमर नायक गैंग का एक प्यादा जो कि डेविड परदेसी का दोस्त था

सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का उपन्यास हीरा फेरी दूसरी बार पढ़ना खत्म किया। सबसे पहली बात जो कहना चाहूँगा वह यह है कि जितना मजा पहली बार आया था उतना ही मजा इस बार आया है।

किताब की बात करूँ तो किताब दो हिस्सों में बंटीं हुई है। पहले हिस्से में पाठक साहब की लेखकीय है। मैं पाठक साहब की किताब उठाता हूँ तो लेखकीय पढ़ने की सबसे ज्यादा जल्दी रहती है। मुझे पता रहता है इसमें पाठक साहब अपने तजुर्बे से जुड़ी बाते भी बताएँगे और कुछ नया रोचक जानने को मिलेगा। हीरा फेरी में भी पाठक को  वसीयत से जुड़ी कुछ रोचक और कुछ मनोरंजक बातें पढ़ने को मिलते हैं। मुझे लेखकीय पसंद आया।

अब उपन्यास के मुख्य कथानक पर आते हैं। हीरा फेरी एक बेहतरीन थ्रिलर उपन्यास है। उपन्यास का घटनाक्रम एक हफ्ते के वक्फे के बीच घटित होता है। उपन्यास की कहानी बुधवार 19 नवम्बर से शुरू होती है और मंगलवार 25 नवम्बर पर जाकर खत्म होती है। उपन्यास के अध्यायों को दिन के हिसाब से बाँटा गया है और हर अध्याय में उस दिन हुई घटना का वर्णन होता है। क्योंकि उपन्यास की कहानी एक छोटी टाइम लाइन के दौरान घटित हो रही है तो कथानक भी कसा हुआ है।

कथानक शुरुआत से ही पाठकों को बाँध कर रखता है और पढ़ते जाने के लिए मजबूर सा कर देता है। चीजें तेजी से घटित होती हैं,योजनायें बनती हैं,बिगड़ती हैं, धोखे दिए जाते हैं और खाए जाते हैं और इनके चलते पाठक उपन्यास के कथानक में बंधा सा रहता है।

उपन्यास के किरदार यथार्थ के निकट प्रतीत होते हैं। पाठक साहब की यही खूबी रही है और इस उपन्यास में वह खूबी कायम है। चाहे उपन्यास में हो रही घटनाएं हों, किरदारों की भाषा हो या किरदारों की प्रतिक्रिया हो सब चीजो में रियालिस्म दिखता है।

जब मैं छोटा था जितने भी खलनायाक होते थे वो इस तरह दर्शाए जाते थे जिससे लगता था कि उनके पास ताकत तो है लेकिन दिमाग से वो पैदल ही हैं। मैं अक्सर यही सोचता था कि ये लोग इतना बड़ा अपराधिक साम्राज्य कैसे चला सकते हैं? और इतना बेवकूफ आदमी इतने ऊपर कैसे पहुँच सकता है। यह एक स्टीरियोटाइप था जो दर्शाता था कि अपराधी मूलतः मूढ़ मगज होते हैं। उपन्यासों में भी अक्सर ऐसे ही चीजें दर्शायी जाती हैं। पर पाठक साहब इस मामले में जुदा हैं। उनके खलनायक  कार्ड बोर्ड करैक्टर नहीं होते। इस उपन्यास में आपको अमर नायक, नवीन सोलंकी, जरनैल, पांड्या इत्यादि जितने भी खलनायक मिलते हैं वो दिमाग के मामले में आला दर्जे के हैं। किस तरह डिटेक्ट करके वो बात के तह तक जाते हैं वो किसी पुलिस तहकीकात से कम नहीं है। जब आप इसे पढ़ते तो सोचने को मजबूर हो जाते है कि अपराध इसलिए कम नहीं हो रहे क्योंकि पुलिस निरी गावदी है। एक कारण यह भी है शायद जो अपराधी है वो बेहद तेज तर्रार दिमाग के मालिक हैं। एक और चीज इधर देखने को मिली। अमर नायक बड़ा क्राइम बॉस जरूर है लेकिन फिर भी वो एक इनसान ही है। जब उसे अलीशा वाज की मृत्यु की बात का पता चलता है तो उसे दुःख होता है। वो बिना बात का खून खराबा नहीं चाहता और अपने लेफ्टिनेंट को भी इसका निर्देश देता है। उसे पता है कि उसके पास ताकत है लेकिन उसे अपने विषय में मुगालता नहीं है। उसे यह भी पता है कि उसकी ताकत कितनी है और वो कहाँ तक इसका असर डाल सकता है। उसके अन्दर दिमाग है और चीजों को आसानी से भांप देता है। आखिर में यह चीज बखूबी दिखती है। यह भी इस पात्र को रोचक और यथार्थ के निकट बनाता है।  आप उपन्यास को पढ़ते हो तो अमर नायक को जानकर आपको लगने लगता है कि वो जिस गद्दी पर बैठा है वो उसे ऐसे नहीं मिली है। वो शायद उसके लायक है।

उपन्यास में  जीत सिंह की एंट्री पचास पृष्ठ के बाद होती है लेकिन यह खटकती नहीं है। इसके अलावा जीत सिंह कहानी में सेकंड्री किरदार की तरह प्रतीत होता  है। लेकिन ये सब बातें  कहानी और जीतसिंह के किरदार के अनुरूप ही है।

जीत सिंह  कोई हीरो नहीं है। वो भाई नहीं है।  वो आम आदमी है जो कि आराम पसंद और शान्ति की ज़िन्दगी गुजारना चाहता है। उसने अपराध की दुनिया में कदम इसलिए नहीं रखा कि उसे नाम कमाना था। उसने इश्क के चलते ऐसा काम किया था। और जब वह वजह नहीं रही तो उसके पास इस दुनिया में रहने का कोई मतलब नहीं था। उसके पश्चात वो इस दुनिया से निकलने की कोशिश ही करता दिखा है।

उसे अपने विषय में कोई मुगालता भी नहीं है और उसी अनुसार वो काम करता है। कमजोर से कमजोर जानवर भी जब परिस्थितिवश कोने में आ जाता है तो मजबूर होकर हमला करता है। जीत सिंह ऐसा ही जीव है। जब उसके अपनों पर बनती है या उसकी जान पर आती है तो ही वह अपने रौद्र रूप में आता है। यही एक वक्त होता है जो वो उन सब चीजों को भी कर डालता है जो कि सामान्य ज़िन्दगी में वो सोचने से घबराए।

मेरे लिए जीत सिंह रियलिटी है। वो परिस्थिति में जिस तरह की प्रतिक्रिया देता है वो प्रतिक्रिया एक आम आदमी जैसी होती है। हाँ, जरायमपेशा की ज़िन्दगी के उसे जाती अनुभव हैं इसलिए वो उन परिस्थितियों को झेल जाता है लेकिन फिर भी वो है आम आदमी है। वो न फेंटम है और न फेंटम बनने की उसके अन्दर कोई चाह है। यही कारण है वो मजबूर ज्यादा दिखता है। और यही कारण भी है कि मुझे वो पसंद है। जीत एक आम आदमी है और एक आदमी जरूरत पड़ने में क्या नहीं कर सकता यह वो दर्शाता है। बस ट्रिगर उस लायक होना चाहिए।

मुझे यह  भी लगता है कि जिस दिन जीत अपना यह सीधापन या साधारणपन छोड़ देगा उस दिन शायद वो एक आम भाई बन जायेगा और जिस आकर्षण के तहत मैं उसे पढ़ता हूँ वो कम हो जायेगा।

जीतसिंह इधर भी बेकफुट पर खेलता दिखता है।  लेकिन फिर आम आदमी हमेशा पंगे से बचने की कोशिश करता है तो यह बात उसके किरदार के अनुरूप है। फिर जीत सिंह यथार्थवादी है। उसे पता है कि गैंग कैसे काम करती है। यह आम दुश्मनी नहीं है। अगर आम दुश्मनी हो तो आप उससे लड़ते हो। उससे जीतते हो तो लड़ाई खत्म हो जाती है। लेकिन जब ओर्गानाइज़ड क्राइम की बात आती है तो ऐसा नहीं है। अगर आप किसी गैंग या उसके गुर्गे से भिड़ते हो तो पूरी गैंग आपके पीछे आएगी। अकेला आदमी हमेशा उनसे लड़ता नहीं रह सकता। वो तब तक नहीं मानेंगे जब तक उस आदमी को खत्म न कर दें क्योंकि अगर वो ऐसा नहीं करेंगे तो उनकी गैंग की इज्जत क्या रह जाएगी। जीत सिंह इसे जानता है। इसलिए एकबेकफुट पर खेलना उसकी मजबूरी है।  ऐसा नहीं है कि जीत सिंह को अपनी मजबूरी का एहसास नहीं है। उसे इस बात का पता है और उपन्यास में इसको ठीक करने के लिए वो कदम भी उठाने की कोशिश करता है। वो कदम क्या है यह तो उपन्यास को पढकर ही आपको पता चलेगा। ऐसा नहीं है उपन्यास में जीतसिंह हमेशा बेकफुट पर रहता है। एक बार जब हद हो जाती है तो वो फ्रंट फुट पर आता है और उस सीन को पढ़कर मजा आ जाता है।

जीतसिंह का टैलेंट लड़ाई झगड़ा या गलाटा करना नहीं बल्कि लॉक बस्टिंग हैं। कथानक में उसे एक बार ही इस हुनर को दिखाने का मौका मिलता है। अगर इस लाइन का कुछ और उपन्यास में होता तो मुझे ज्यादा मज़ा आता।

जीतसिंह और मिश्री की केमिस्ट्री भी मुझे पसंद है।अगर इस चीज को भी उपन्यास में ज्यादा जगह दी जाती तो मुझे और अच्छा लगता। मिश्री जीत सिंह के लिए परफेक्ट है और उनके रिश्ते को अब आगे बढ़ना चाहिए। अगर ऐसा होता है तो मुझे ख़ुशी होगी।

उपन्यास में पक्या का जिक्र है जो कि मुझसे बुरा कोई नहीं में जीतसिंह को धोखा देकर भागा था। एक कहानी उसके साथ भी बनाई जा सकती है। मुझे लगता है वो रोचक होगी। पक्या किसी मुसीबत में और जीत सिंह के पास आता है मदद के लिए।
अगर ऐसा होता है तो मजा आयेगा।

उपन्यास का अंत मुझे पसंद आया। जीते को आखिरकार कुछ तो मिलता है। 

अगर गलती की बात करूँ तो उपन्यास में मेरी नज़र में खाली एक ही गलती आई और वो प्रिंटिंग की थी।
पृष्ठ १०१ में सलमान गाजी की जगह बल्लू कन्नौजिया लिखा गया है जिससे थोड़ी शंका मन में उठती है

ऊपर लिखी बात के अलावा उपन्यास में मुझे तो कोई कमी नज़र नहीं आई। उपन्यास ने मेरा भरपूर मनोरंजन किया। हीरा फेरी मूलतः एक थ्रिलर है और इसी तरह यह आगे बढ़ता है। रोमांच शुरू से लेकर आखिर तक बरकरार रहता है।  मेरे लिए हमेशा किरदार से महत्वपूर्ण कहानी रही है। इस उपन्यास में भी कहानी जीतसिंह से ऊपर है। अगर आप  जीतसिंह के उपन्यास के तौर पर इसे पढ़ोगे तो शायद कमी लगे लेकिन एक थ्रिलर के तौर पर पढ़ोगे तो सभी उम्मीदों पर खरा उतरेगा। मेरा तो यह भी मानना है कि जीतसिंह को जिस तरह दिखाया गया है उससे कुछ अलग दिखाया जाता तो उसके किरदार से उलट होता और उससे कहानी के कमजोर पड़ने का अंदेशा भी था।

इस उपन्यास के बाद मैं यह देखने के लिए इच्छुक हूँ कि जीतसिंह की ज़िन्दगी क्या मोड़ लेती है। जीतसिंह के अगले उपन्यास का बेसब्री से मुझे इन्तजार है।

अगर आपने यह उपन्यास पढ़ा है तो आपको यह कैसे लगा? उपन्यास के प्रति अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा। उपन्यास अगर आप पढ़ने के इच्छुक हैं तो आप इसे निम्न लिंक से मँगवा सकते हैं:
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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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10 Comments on “हीरा फेरी – सुरेन्द्र मोहन पाठक”

  1. काफी बेहतरीन उपन्यास था, जैसा आपने कहा शुरुआत से अंत तक बांधे रखता है। एक सीटिंग में, और इतनी जल्दी शायद ही किसी उपन्यास को पढ़ा हो। 🙂

    1. जी सही कह रहे हैं। जीत सिंह के उपन्यास मुझे पसंद रहे हैं। इससे पहले आये 'मुझसे बुरा कौन' और 'मुझसे बुरा कोई नहीं' भी मुझे पसंद आये थे।

  2. ‌ हीरा फेरी पढ़कर मेनॆ आज ही खत्म किया। मुंबई अंडरवर्ल्ड की बाबत लिखने मे पाठक साहब का कोई जवाब नहीं है पाठक साहब का अंदाज ए बयां बहुत दिलचस्प होता है। कहानी अत्यंत तेज रफ्तार है। कहानी को अन्त में शानदार तरीके से घुमाकर उपन्यास को असाधारण बना दिया। लेकिन उपन्यास कहीं से भी जीत सिंह का नहीं लगता है आपने सही कहा है उपन्यास को जीत सिंह के तौर पर न पढ़ कर पाठक सर के thriller सीरीज के नावेल के तौर पर पर पड़ा जाए तो ज्यादा मनोरंजक रहेगा।
    लेकिन पाठक साहब ने यह नहीं बताया की अमर नायक की गैंग में हुसैन डॉकी का आदमी ( भेदिया ) कौन था

    1. जी जो हल्का फुल्का इशारा हुआ था.. उससे मुझे लगा कहीं नायक का लेफ्टिनेंट ही न रहा हो.. लेकिन यह कयास ही लगाया था मैंने…जी पाठक साहब के उपन्यासों यथार्थ के नजदीक होते हैं और जीत सिंह एक वाल्ट बस्टर है और हाल फिलहाल में एक टैक्सी ड्राईवर.. ऐसे में उसका अंडरवर्ल्ड के बड़े भाई से लड़ना अतिश्योक्ति ही होती और जीत सिंह के किरदार से अलग होता… मैंने जीत के जितने भी उपन्यास पढ़े हैं उनमें उसने हमेशा पंगे से दूर जाने की ही कोशिश की है.. वह विमल की तरह दिलेर नहीं है.. जब तक उसके पास चारा होता है वो कम ही लड़ता भिड़ता है.. जब चारा नहीं होता तभी रौद्र रूप अख्तियार करता है..और इसलिए मुझे पसंद है…

    2. मैं तो खरीद कर उपन्यास पढ़ता हूँ। कुछ साईट हैं जैसे gadyakosh, hindi samay, rachanakar जहाँ हिन्दी साहित्य की कृतियाँ मौजूद हैं लेकिन इधर भी आपको सभी किताबें नहीं मिलेंगी।मेरी राय यही है कि खरीद कर पढ़े।

  3. हेरा फेरी पढ़कर मैंने आज ही खत्म किया। मुंबई अंडरवर्ल्ड की बाबत लिखने में पाठक साहब का कोई जवाब नहीं है। पाठक साहब का अंदाज ए बयां बहुत दिलचस्प होता है। कहानी अत्यंत तेज रफ्तार है। कहानी को अंत में बेहतरीन तरीके से घुमा कर उपन्यास को असाधारण बना दिया। लेकिन उपन्यास कहीं से भी जीत सिंह का नहीं लगता है। आपने सही कहा है उपन्यास को जीत सिंह सीरीज के तौर पर न पढ़ कर पाठक सर के thriller सीरीज के नावेल के तौर पर पढा जाए तो ज्यादा रोमांचक और मनोरंजक लगेगा।
    लेकिन पाठक साहब ने यह नहीं बताया कि अमर नायक की गैंग में हुसैन डाकी का आदमी (भेदिया) कौन था

    1. जी जो हल्का फुल्का इशारा हुआ था.. उससे मुझे लगा कहीं नायक का लेफ्टिनेंट ही न रहा हो.. लेकिन यह कयास ही लगाया था मैंने…जी पाठक साहब के उपन्यासों यथार्थ के नजदीक होते हैं और जीत सिंह एक वाल्ट बस्टर है और हाल फिलहाल में एक टैक्सी ड्राईवर.. ऐसे में उसका अंडरवर्ल्ड के बड़े भाई से लड़ना अतिश्योक्ति ही होती और जीत सिंह के किरदार से अलग होता… मैंने जीत के जितने भी उपन्यास पढ़े हैं उनमें उसने हमेशा पंगे से दूर जाने की ही कोशिश की है.. वह विमल की तरह दिलेर नहीं है.. जब तक उसके पास चारा होता है वो कम ही लड़ता भिड़ता है.. जब चारा नहीं होता तभी रौद्र रूप अख्तियार करता है..और इसलिए मुझे पसंद है…

  4. बेहतरीन समीक्षा | जीतसिंह सीरीज मुझे भी बेहद पसंद है क्योकि जीत सिंह से जल्दी कनेक्ट हो जाता हूँ | उसकी ऐसी हालत देखकर दुःख होता है| वैसे अभी 'हिराफेरी' नही पढ़ी है | जुगाड़ करके जीतसिंह के सभी नॉवेल इकट्टे कर लिये है अब 1 नम्बर से पढ़ रहा हूँ |

    1. जी जानकर अच्छा लगा कि आप शुरुआत से पढ़ रहे हैं। जीतसिंह से हर आम आदमी जुड़ाव महसूस कर सकता है। यह भी पढ़िये निराश नहीं होंगे।

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