उपन्यास जून 6,2017 से जून 10, 2017 के बीच पढ़ा गया
संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 336
प्रकाशक : हार्पर कॉलिंस इंडिया
श्रृंखला : जीत सिंह #10
पहला वाक्य :
दस बजे एस्टेट के मैंशन में नेताजी के ऑफिस में मीटिंग माहौल था जो कि मातमी था और ब्लेड की धार की तरह पैना था।
जीत सिंह उर्फ़ जीता. जिसका खाली नाम ही जीता था लेकिन वो आज तक कुछ न जीता था. ने चार महीने की अपनी शांत ज़िन्दगी के दौरान कभी सोचा भी न होगा कि अगर उसकी ज़िन्दगी में अशांति आएगी तो उसका रूप इतना प्रचंड होगा। जीत सिंह गोवा में निपटे गलाटे के बाद नाम बदलकर मुंबई वापस आ गया था। लेकिन फिर एक पैसेंजर उसे मिला और नतीजा ये कि जिन लोगों से बचने के लिए उसने नाम बदला था, अब वो ही हाथ धोकर उसके पीछे पड़े थे। उसने एक साजिश के तहत फंसकर ऐसे काम को अंजाम दिया था कि अब उसका बचना मुश्किल लग रहा था। ऊपर से कोढ़ पर खाज ये कि वो नहीं जानता था कि किसने उसे फँसाया है। जिस व्यक्ति के लिए उसने काम किया था उसने अपनी पहचान छुपाने का पूरा इंतजाम करके रखा था।
क्या जीता इस सांसत से अपनी जान बचा पायेगा? इसके लिए उसे क्या करना होगा? वो कौन था जिसने उसे अपनी साजिश में फँसाया था ?
ऐसे ही कई सवालों का जवाब आपको इस उपन्यास को पढ़कर मिलेगा। तो देर किस बात की है। आपको पता है क्या करना है।
मुझसे बुरा कोई नही मुझसे बुरा कौन का उत्तरार्ध है। यानी मुझसे बुरा कौन की कहानी जहाँ पर खत्म होती है वहीं से इसे आगे बढाया गया है। अगर आपने पहला पार्ट नहीं पढ़ा है और सीधा इस पर हाथ लगाया तो उसमे भी घबराने की जरूरत नहीं है। वैसे अच्छा तो यही होता कि पहले पूर्वार्ध पढ़ा जाता लेकिन चूँकि इसमें चौदह पृष्ठों में पिछले उपन्यास की कहानी को संक्षिप्त रूप से बताया गया है, तो इसलिए नये पाठक को ऐसा नहीं लगेगा कि उसने कुछ खोया है। फिर भी मेरी राय ये ही होगी कि आप इस उपन्यास का पहला भाग पढने के बाद ही इधर आयें क्योंकि उस उपन्यास का मज़ा संक्षिप्त कथानक पढ़कर नहीं आयेगा। आप ही बातायें हाइलाइट्स देखने में ज्यादा मज़ा आता है या पूरा मैच देखने में?
खैर, अब आते हैं उपन्यास के ऊपर। उपन्यास मुझे तो बेहतरीन लगा। अगर आप एक थ्रिलर पढने के शौक़ीन हैं तो उपन्यास आपको निराश नहीं करेगा। अब आप सोच रहे होंगे कि हर अगर के बाद एक लेकिन होता है वो लेकिन क्या है। देखिये इस लेकिन का मेरे लिए तो कोई महत्व नहीं है लेकिन कुछ के लिए हो सकता है। उपन्यास चूँकि जीत सिंह श्रृंखला का है और उन लोगों को थोड़ा निराश कर सकता है जो अपने हीरो को आम आदमी की तरह नहीं देख सकते हैं। पूरे उपन्यास में जीत सिंह जो करता है वो खुद नहीं करता बल्कि मजबूरन करता है। ऐसे में जीतसिंह कई बार कमजोर लगता है। अगर आप आम नायको को देखें तो ये उससे जुदा है। जहाँ आम नायक हर किसी पे भारी पड़ता है वहीं जीतसिंह पर हर कोई भारी दिखता है। लेकिन मेरे लिए जीत का यही प्लस पॉइंट है। और इसलिए मुझसे वो पसंद है। और इसलिए जब वो मुसीबत से अपना पिंड छुटा पाने में कामयाब होता है तो मुझे ज्यादा ख़ुशी होती है। सुपर हीरो टाइप नायक जो विलन पर भारी पड़े मुझे पसंद नहीं है।
बाकी उपन्यास तेज रफ़्तार है। उपन्यास के हर हिस्से में रोमांच है। आप एक बार पढ़ते हैं तो पढ़ते ही जाते हैं।
हाँ उपन्यास की कमी कि बात करें तो पहले मुझे उपन्यास के शीर्षक कुछ अजीब लगे थे। उपन्यास के शीर्षक मुझसे बुरा कौन और मुझसे बुरा कोइ नहीं जब आप सुनते हैं तो आपको लगता है आप किसी ऐसे व्यक्ति की कहानी पढेंगे जो बहुत बुरा यानी बहुत खतरनाक हो। लेकिन इस उपन्यास को पढेंगे तो पाएंगे कि शीर्षक में बुरा का मतलब खतरनाक या डेंजरस नहीं बल्कि बुरी परिस्थिति है। यानी मुझसे बुरी हालत में कौन। इसलिए शीर्षक कभी कभी भ्रमित कर सकता है। या गफलत पैदा कर सकता है। वैसे पाठक साहब ने इस उपन्यास के पहले हिस्से में बताया था कि ये शीर्षक पहले से उनके पास उपलब्ध था इसलिए इसे रखा गया। मेरी व्यक्तिगत राय में शीर्षक थोड़ा अच्छा हो सकता था।
इसके इलावा कथानक में एक जगह आई फोन की अदला बदली होती है और फिर उसे आसानी से खुलवा लिया जाता है। अब जहाँ तक मेरी जानकारी कहती है कि आई फोन में फिंगर प्रिंट लॉक होता है जिसे खोलना मुश्किल होता है। ऐसे में इस अदला बदली में जिस डाटा को इतनी आसानी से पात्रों ने पा लिया वो मुमकिन नहीं था। उसमे थोड़ा परेशानी दिखाते तो बढ़िया रहता। या तो उसे आई फोन की जगह कोई दूसरा फोन दिखाते तो सही रहता।
इन दो चीजों के इलावा उपन्यास में मुझे तो कोई कमी नहीं लगी। उपन्यास के अंत में मेरे मन में मिश्रित भावनाएं थी। थोड़ी अच्छी थोड़ी बुरी। अच्छा इसलिए कि एक बेहतरीन, पैसा वसूल उपन्यास पढ़ा था और दुःख या बुरी इसलिए कि… खैर छोडिये उपन्यास पढ़िए खुद जानिए।
अगर आपने उपन्यास पढ़ा है तो इसके विषय में आपकी राय जानने को मैं उत्सुक हूँ। अगर उपन्यास नहीं पढ़ा है तो आप इसे निम्न लिंक से मंगवा सकते हैं :
श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के उपन्यास पढने का सफ़र मैंने जीत सिंह के उपन्यास से ही शुरू किया था। इसलिए जीत मुझे प्यारा है और जब पता लगा कि उसका नया उपन्यास आ रहा है तो मेरी बांछे खिलना स्वाभाविक था। इसलिए मैंने तो नया उपन्यास आर्डर कर दिया है। उम्मीद है इस दोनों उपन्यासों की तरह वो भी पूरा पैसा वसूल होगा।
उसका पेपरबैक आने में वक्त है लेकिन किंडल तो ले ही सकते हैं। उसके लिंक्स हैं :
पेपरबैक
किंडल
दोनों पार्ट जबर्दस्त है | जीत सिंह से हमदर्दी रहती है पढ़ते वक्त | कभी कभी तो लगता है पाठक साहब जीत सिंह के साथ कुछ ज्यादा ही अन्याय कर रहे है | और दोनों पार्ट के जो नाम है शुरू में मुझे भी कंफ्यूज किया था फिर एक मित्र ने समझाया की किस तरह यह नाम नॉवेल को जस्टिफाई करते है | वैसे मुझे अब भी लगता है इनका नाम कुछ और ही होना चाहिए था |
जी जीत सिंह की ज़िंदगी ही ऐसी है कि उसके साथ अन्याय न हो तो वह इन फसादों में पड़े ही नहीं। वैसे इसी श्रृंखला में गाइलो भी जीत को कहता है कि वह ट्रबल मैगनेट है। ट्रबल उसके पास दौड़ी चली आती है। इस उपन्यास में तो जीत एक जासूस का काम भी करता है जो कि मुझे पसंद आया। शीर्षक के मामले में पाठक साहब कमजोर ही रहे हैं। यह तो वह खुद भी मानते हैं।