मुझसे बुरा कौन – सुरेन्द्र मोहन पाठक

रेटिंग : 4.5/5
उपन्यास  मई 26, 2017 से मई 28, 2017 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 294
प्रकाशक : हार्पर  कॉलिंस
आईएसबीएन:978-9-351-77722-9
श्रृंखला : जीत सिंह #9

पहला वाक्य :
दोपहरबाद का वक्त था जबकि इंस्पेक्टर राजेश महाले अपने एसीपी की हाजिरी भर रहा था। 


नेता बहराम जी कांट्रेक्टर कभी एक काला बाजारिया और स्मगलर हुआ करता था जिसने राजनीती में घुसते ही इन सबसे किनारा कर लिया था। लेकिन गोवा में मिली राजनितिक शिकस्त के बाद ये अफवाहें गर्म थी कि नेता जी ने अपने हारे हुए पैसों की भरपाई के लिए दोबारा पुराने धंधे शुरू कर दिए थे। और फिर एक सिलसिला शुरू हुआ। पुलिस को गुमनाम टिप मिलती रही और नेता जी का तथाकथित सामान पकड़ता चला गया।

क्या ये सचमुच नेता जी का सामान था? अगर नहीं तो कौन नेताजी के खिलाफ साजिश रच रहा था?

जीत सिंह ने गोवा में हुए गलाटे से अपनी जान किसी तरह बचाई थी। जीत सिंह को पता था कि अपने दुश्मनों से अगर उसे बचना है तो मुंबई में वो जीत सिंह बनकर नहीं रह सकता था। इसलिए उसे अपने को मारना पड़ा था। और गोवा से जो वापस आया था वो जीत सिंह नहीं रौशन बेग था। वही रौशन बेग अब गुनाह कि ज़िन्दगी से किनारा करके एक मामूली टैक्सी ड्राईवर की ज़िन्दगी बिता रहा था।

ऐसे में बिठाये गये उस कस्टमर से जीत सिंह उर्फ़ रौशन बेग ने  खाली किराये की उम्मीद ही की थी। लेकिन जीत सिंह के तब होश फाख्ता हो गये जब कस्टमर ने न केवल उसे पहचाना बल्कि ढके छुपे शब्दों में उसकी असलियत नेता जी के सामने उजागर करने की धमकी भी दे डाली।

कौन था ये व्यक्ति ?वो जीत सिंह से क्या करवाना चाहता था? 

अमेज़न की मानें तो मैंने इस उपन्यास को मई १, २०१६ यानी की लगभग  एक साल पहले खरीदा था। यकीन नहीं होता कि एक साल से उपन्यास मेरे शेल्फ में पड़ा धूल खा रहा था। ऐसा नहीं है कि उपन्यास मुझे पढना नहीं था। लेकिन चूँकि मैंने कोलाबा के  बाद ही पाठक साहब को पढना शुरू किया था तो ऐसे कई पुराने उपन्यास थे  जिन्हें मैंने पढ़ा नहीं था  और  मैं उन्हें पढता जा रहा था। इस कारण नये उपन्यासों को मैं खरीद तो लेता हूँ लेकिन पढने में वक्त लगा देता हूँ।

लेकिन जब मुझे पता चला कि इस जून में जीत सिंह श्रृंखला का नया उपन्यास हीरा फेरी आ रहा है तो मैंने सोचा कि  अब तो इसे पढ ही डालना चाहिए।  फिर इसी दौरान एसएमपी फैन मीट भी माउंट आबू में हुई तो उधर ही इस उपन्यास को पढ़ना शुरू कर दिया।  जीत सिंह का मेरे मन में एक विशेष स्थान है क्योंकि पाठक साहब को मैंने जीत सिंह के कोलाबा कांस्पीरेसी से ही पढना शुरू किया था।

खैर, उपन्यास की काफी भूमिका बाँध ली। अब उपन्यास के विषय में बात करते हैं।  उपन्यास शुरू से लेकर अंत तक रोचक है। कथानक कहीं भी धीमा नही पड़ता है। उपन्यास में दो कहानियाँ एक साथ चलती हैं। कोई रहस्यमयी व्यक्ति नेताजी के खिलाफ साजिश रच रहा है और एक व्यक्ति  जीत सिंह को ब्लैकमेल करके अपना काम निकलवाना चाहता है। ये दोनों काम इस तरीके से किये जा रहे हैं कि पाठक ये जानने के लिए उत्सुक रहता है कि आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है।

उपन्यास के अंत तक आते आते इन कारणों का पता चलने लगता है लेकिन फिर ऐसा कुछ घटित होता  है कि पाठक के होश उड़ जाते हैं। पाठक साहब ने इस बार काफी वृद्ध कथानक लिखा है जो कि एक ही जिल्द में आना शायद नामुमकिन था। इसलिए इस उपन्यास की कहानी एक ऐसे मोड़ पर खत्म होती है जिस पर पहुँचकर मेरे जैसे पाठक के लिए दूसरे उपन्यास को न पढ़ना नामुमकिन ही होगा।

जीत सिंह जिस तरह अच्छी शांति की ज़िन्दगी से जूझते हुए दोबारा मुश्किल में पड़ता है वो देखकर मुझे थोड़ा दुःख हुआ। उसे देखकर कभी कभी दया भी आती है। लेकिन मुझे इस बात का भी एहसास है कि जीत सिंह आखिर में एक वॉल्ट बस्टर है और अगर उससे मिलना है तो ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करनी पड़ेंगी कि उसे वॉल्ट बस्टिंग करनी पड़े। अगर ऐसा नहीं होगा तो जीत सिंह की कहानी रुक ही जाएगी। आगे जाकर ये किरदार क्या मोड़ लेगा ये देखने के लिए मैं उत्सुक हूँ। अभी जीत सिंह ऐसा डेविड है जिसके सामने कई गोलिआथ आ सकते हैं। और यही बात है जो मुझे जीतसिंह से जुड़े उपन्यासों की तरफ आकर्षित करता है।

गाइलो और जीतसिंह के बीच का रिश्ता मुझे पसंद आता है। अगर आगे चलकर जीत सिंह को भाई या अपराधी बनना पड़ता है, जैसा कि उपन्यास में हिंट भी दिया है, तो गाइलो उसका दायाँ हाथ रहेगा इसकी गारंटी है। इस उपन्यास में भी वो उसके लिए काफी लेग वर्क करता है या करवाता है। दूसरा वही है जो जीत सिंह को भाई की तरह नसीहत दे सकता है या उसके साथ मज़ाक कर सकता है।


‘इसलिए मैं ऊपर वाले से हमेशा दुआ करता हूँ कि, ऐ खुदा, तू मेरी कर्मों की तरफ न देख, अपनी रहमत की तरफ देख। तू जानता है कि न मेरे गुनाहों का हिसाब हो सकता है, न तेरी रहमत का। दोनों समुद्र में उठने वाले बुलबुले हैं, कौन उनकी गिनती कर सकता है! मैं सिर्फ इतना जानता हूँ कि मैं सिर से पाँव तक गुनाहों से लबरेज हूँ, लेकिन तेरी रहमत के सामने मेरे गुनाह तुच्छ हैं। मैं.’
‘सेंटीमेंटल हो रयेला है। जब कि अभी तो थर्ड ही है..”
‘सेकंड’

हाँ, मिश्री की कमी इस उपन्यास में खली थी। कब तक बेचारा जीत सिंह अकेला रहेगा। उम्मीद है अगले उपन्यास में उसका कुछ होगा। लेकिन ये मीनमेख निकालने वाली बात है।

उपन्यास में मुझे खाली एक चीज खटकी है लेकिन उस चीज के मामले में मैं गलत भी हो सकता हूँ। उपन्यास में  एक जगह एक व्यक्ति की मौत का कारण संखियाँ यानी आर्सेनिक बताते हैं।
“कौन सा जहर? है कोई आईडिया?”
“है। संखिया। आर्सेनिक। दूसरी साँस नहीं आने देता।”
“ओह! इसी वजह से चिल्ला भी नहीं पाया!”
“हाँ। ऐसे केस मैंने पहले भी हैंडल किये हैं इसलिए सिम्पटम्पस की मुझे पहचान है। कन्फर्मेशन पोस्टमार्टम से…..”
(पृष्ठ 103)
लेकिन मैंने जहाँ तक अरेसेनिक की बात पढ़ी है उसका धीमा असर करने वाले  जहर के रूप में ज्यादा उपयोग किया जाता रहा है। राजसी परिवार को लोग इसे पानी या किसी पेय पदार्थ के साथ अपने दुश्मन को पिला देते थे और इसके निरंतर उपयोग से वो व्यक्ति कुछ ही महीनों  में मर जाता था। दूसरा अगर ज्यादा डोज़ हो तो इससे आदमी तड़प तड़प कर मरता है। एकदम से हुई मौत तो साईनाइड जैसे जहर से आती है। एक जगह उपन्यास में ये भी कहा जाता है कि ऐसा जहर जिसका स्वाद अभी तक कोई नहीं बता पाया।  लेकिन ये चीज भी शायद  साईनाइड  के लिए बोली जाती है। आर्सेनिक के विषय में ढूंढने की कोशिश की लेकिन जैसा सिम्पटम उपन्यास में दिखाए वैसे नहीं मिले। यही एक बात मुझे उपन्यास में खटकी थी। इधर मैं फिर कहना चाहूँगा कि हो सकता है मैं गलत होऊं।

बाकी उपन्यास पूरा पैसा वसूल है। इसने मेरा शुरू से लेकर अंत तक मनोरंजन किया।

अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आपकी इसके विषय में क्या राय है? टिपण्णी से मुझे अवगत जरूर करवाइयेगा। अगर आपने उपन्यास नहीं पढ़ा है तो आप निम्न लिंक से मंगवा सकते हैं।
पेपरबैक
किंडल


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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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7 Comments on “मुझसे बुरा कौन – सुरेन्द्र मोहन पाठक”

  1. Yes. Arsenic poisoning pe aapke comment coorect hain. Dheema asar hi karta hai. Infact Cyanide bhi actually kai kqi ghante leta hai asar karne mein (sometimes 2 days), aur koi 100% guarantee bhi nahi hoti. Mere liye bhi shocking tha ye, kyunki main sochta tha Potassium cyanide pal bhar me asar karne wala zehar hai

    1. मुकेश जी इसी में मुझे शंका थी। फिल्मों और टीवी ने हमे काफी कुछ गलत सिखाया है। पोस्ट पर टिपण्णी करने का शुक्रिया। आप पहली बार इधर आये हैं। आते रहियेगा।
      क्या आप भी पाठक साहब के उपन्यास पढ़ते हैं?

    2. Oh maaf kijiye, jawaab dekhna bhool gaya. Pathak sahab ko padha hai kaafi. Infact ye two part series to bilkul haal me padhi. 🙂
      Waise ekaadh aur visangatiyaan lagi mujhe…par is tarah ke thrillers ka ek inherent 'logic' hota hai, to zyada kahna bhi theek nahi.
      1. Jaise jis speed se ghatnayen huin, mishkil se ek hafte me simat gayi puri katha. Thoda suspension chahiye disbelief ka
      2. Phone ke unlock waali baat ke saath adla badli ke waqt jo sim card me vikaar paida kiya tha wo bhi hazam nahi hui
      3. Kabir Chaudhary ko jis tarah balcony se utara wo bhi thoda atishayokyti liye tha…

      Aur bhi hongi, but kase hue kathanak hone ke karam notice nahin hota.

    3. मुकेश जी ये जानकर अच्छा लगा कि आप पाठक साहब को नियमित रूप से पढ़ते हैं।

      जी थ्रिलर में स्पीड से काम करवाना होता है तो कुछ चीजें तो मैं नज़रअंदाज कर देता हूँ। जैसे फिंगर प्रिंट्स निकलने की स्पीड, पोस्ट मोर्टेर्म के रिपोर्ट, केस का नंबर लगने इत्यादि। ऐसे ही घटनाक्रम जल्दी जल्दी हो तो मुझे मज़ा आता है इसलिए परेशानी नहीं होती।

      सिम वाली बात आपने सही की लेकिन उन्होंने सिम बदला नहीं था। गाइलो ने खाली अपना सिम निकाला था। उनकी बातचीत काफी चली थी तो उसमे शायद ऐसा मुमकिन हो सकता है। उसमे एक डायलॉग है जिसमे वो कहता है कि उसने इतनी पी रखी होगी कि सबह तक फोन चेक नहीं करेगा और सुबह सवेरे हम उधर पहुँच जायेंगे और माफ़ी के साथ कहेंगे की गलत फोन उठा लिया। ऐसा जीत सिंह करता भी है।(पृष्ठ २२५-२२६)

      बालकनी से उतारने वाला सन्दर्भ भी अतिश्योक्ति लगता है लेकिन संभव है। आप याद कीजिये कुछ दिनों पहले दिल्ली में एक औरत ऐसे balcony से कूद कर अपने बलात्कारियों के चंगुल से निकली थी।ऐसे में जीत सिंह, जिसके लिए कबीर को अपनी पकड़ में लेना ज़िन्दगी मौत का सवाल था, का ये कर गुजरना मुझे इतना आश्चर्यजनक नहीं लगा।

      आपने इतनी विस्तृत टिपण्णी की उसके लिए शुक्रिया।ब्लॉग पर आते रहियेगा।

      आप और कौन कौन से लेखकों को पढना पसंद करते हैं?

    4. Ji bilkul theek kaha aapne, thriller ki maang hi hoti hai tezi se ghatati ghatnayein.
      Kisi real life murder case ya heist ke case history pe yadi koi novel likha jaye to saalon saal tak chalti rahe katha aur koi resolution bhi na ho. 🙂

  2. बढ़िया और रोचक समिक्षा है | जीतसिंह का जबर्दस्त थ्रिलर है|

    1. जी लेख आपको पसंद आया उसके लिए आभार। जीत के जितने उपन्यास मैंने पढ़े हैं वो मुझे पसंद आये हैं।

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