संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 27 | प्रकाशक: नीलम जासूस कार्यालय | अनुवाद: इश्तियाक खाँ | मूल भाषा: उर्दू
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
कस्बे के घर में एक मृत्यु हो गई थी। वह पचास वर्षीय पुरुष था जिसकी लाश उसकी पत्नी को मिली थी। पत्नी अपने पति को सोने के लिए कहकर पड़ोस के घर में शादी की किसी रस्म में शामिल होंने के लिए गई थी। जब वह लौटी तो उसने अपने पति को खाट पर मृत पाया था।
पत्नी का कहना था कि पुरुष की मृत्यु हृदयाघात से हुई थी जबकि पुरुष के भाई का कहना था कि उसकी हत्या की गई थी।
आखिर सच्चाई क्या थी?
क्या पुरुष की मृत्यु प्राकृतिक थी?
आखिर पुरुष के भाई को उसकी हत्या होने का शक क्यों था?
मेरे विचार
‘माँ की खातिर’ अहमद यार खाँ की सत्य कथा है। यह रचना तहकीकात के चौथे अंक में प्रकाशित की गई है। मूल रूप से उर्दू में प्रकाशित इस रचना का अनुवाद इश्तियाक खाँ ने किया है।
तहकीकत के चौथे अंक में अहमद यार खाँ की यह दूसरी रचना प्रकाशित हुई है। उनकी एक उपन्यासिका जितनी लंबी सत्य कथा प्रेम प्यासी भी तहकीकात पत्रिका में मौजूद है और इन दोनों ही रचनाओं में एक साम्य यह है कि दोनों में होंने वाले अपराध का कारण माँ का प्यार होता है। यह कैसे होता है ये तो आप रचनाएँ पढ़कर जाने तो बेहतर होगा।
अहमद यार खाँ ब्रिटिश भारत में एक पुलिस अफसर थे। अपनी नौकरी के दौरान जिन मामलों से वो दो चार हुए उन्हें उन्होंने बाद में जाकर कलमबद्ध किया।
प्रस्तुत सत्यकथा ‘माँ की खातिर’ उनके द्वारा सुलझाए गए ऐसे ही मामले को पाठक के सामने रखती है। कथा प्रथम पुरुष में बताई गई है और कथावाचक जाँच करने वाला अफसर है।
एक पुरुष की मृत्यु, जिसके विषय में कहा जा रहा है कि वह संदिग्ध हो सकती है, की जाँच करने के लिए कथावाचक मृतक के घर पहुँचता है। इसके बाद इस जाँच में क्या क्या होता है? कथावाचक कैसे असलियत तक पहुँचता है? यह सब इस कथा में खुलकर आता है।
अहमद यार खाँ की अन्य सत्यकथाओं की तरह ही इसमें जाँच के दौरान पुलिस द्वारा प्रयोग में लाए तरीकों के विषय में पता लगता है। कैसे पुलिस वाले मुखबिरी करवाकर सच का पता लगवाते हैं, कैसे वह मामले में शमिल लोगों से जानकारी उगलवाते हैं या प्रयोग कर खोजवाते हैं और कैसे सबूतों की कड़ियाँ जोड़कर सच तक पहुँचते हैं यह इधर दिखता है।
कथावाचक पुलिस की कार्यशैली के विभिन्न पहलुओं को तो दर्शाते ही हैं साथ में समाज और अपने मानवीय पहलू को भी उजागर करते हैं। उदाहरण के लिए:
संदिग्ध एक ऐसा शब्द है जो किसी भी थानेदार को अनदेखा नहीं करना चाहिए। (पृष्ठ 44)
और फिर बुढ़ापे में आकर दूसरी शादी करना बहुत बड़ी मूर्खता है। पहली पत्नी का दिल तोड़ना और दूसरी पत्नी के जीवन को बर्बाद करना बहुत बड़ा गुनाह है जो कि माफ नहीं किया जा सकता। शौहर अपने लिए कठिनाइयाँ उत्पन्न कर लेता है, या मारा जाता है। (पृष्ठ 47)
कोई बाप अपनी बेटी के चरित्र को बुरा नहीं कहता। कुछ बाप अपनी बेटियों के संबंध में कुछ भी नहीं जानते। माएँ बेटियों की राजदार होती हैं। (पृष्ठ 48)
उस जमाने में चरस केवल आपराधिक प्रवृत्ति के आदमी या मलंग इत्यादि बहुत ही घटिया वर्ग के लोग पीते थे। यह सोचा ही नहीं जा सकता था कि यहाँ दीवार के साथ अच्छे खानदानों के लड़के बैठकर चरस पीते रहे हों। (पृष्ठ 50)
तफ्तीश में कभी कभी ऐसा भी होता है कि बच्चा बगल में और ढिंढोरा शहर में वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है और मुझ जैसे मगज फिरे थानेदार सारे थाने की सीमाएँ अर्थात अपने सारे इलाके की खाक छानता और संदिग्धों के लिये परेशानी खड़ी किए रहते हैं। परंतु ऐसा सौभाग्य कभी कभी देखने में आता है। (पृष्ठ 51-52)
मुखबिर औरतें और मर्द नि:संदेह पुलिस के लोग होते हैं परंतु होशियार थानेदार उनकी हर रिपोर्ट को सच नहीं मान लिया करते क्योंकि यह लोग अच्छे चरित्र के नहीं होते। कुछ अपराधी मुँह माँगे पैसे देकर उनके मुँह बंद कर देते और उनकी जबान से पुलिस को भटका देते हैं। पुलिस के लिए मुखबिरी का होना आवश्यक होता है परंतु संदिग्ध भी। (पृष्ठ 57)
कहानी रोचक है। जैसे जैसे आगे बढ़ती है वैसे वैसे नए मोड़ इसमें आते हैं। हाँ, एक बार सारे किरदार पता चल गए तो फिर अपराधी कौन है ये आसानी से पता लग जाता है। शीर्षक भी कातिल की पहचान उजागर करने में काफी मदद करता है। फिर भी मामले का अंत कैसा होगा ये देखने के लिए आप रचना पढ़ते चले जाते हैं।
रचना की भाषा शैली सहज सरल है। रिपोर्ट के लहजे में लहजे में यह लिखी गई है। उपन्यास अच्छा हुआ है। रचना में इक्का दुक्का वर्तनी की गलतियाँ हैं लेकिन इतनी नहीं हैं कि जो चुभें। पढ़ने के अनुभव को वो इतना प्रभावित नहीं करती हैं।
अगर आपकी पुलिस की कार्य शैली जानने में रुचि है तो इसे पढ़ सकते हैं। अगर आप चौंकाने वाली अपराध कथाएँ पढ़ने के शौकीन हैं तो शायद आपको यह सत्यकथा इतनी पसंद न आये।
पुस्तक लिंक: अमेज़न