जान बची तो लाखों पाए – अनिल मोहन

रेटिंग: 3/5
उपन्यास 14 अक्टूबर 2016 से 15 अक्टूबर 2016 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 256
प्रकाशक: राजा पॉकेट बुक्स
आईएसबीएन : 978-93-324-1988-9

पहला वाक्य:
मोना चौधरी ने भीड़ भाड़ वाले इलाके में एक गली के किनारे कार रोककर इंजन बंद किया और बदन पर मोटी जीन की कमीज खोलकर हवा को भीतर धकेलने वाले अंदाज में कमीज को हिलाया।

विजय देव एक विज्ञान का छात्र था। आठ साल की कड़ी  मेहनत के बाद उसने एक परमाणु विज्ञान में ऐसा आविष्कार कर दिया था जिससे इस विषय में हलचल मच जाना तय था। उसने ऐसा तरीका खोज लिया था जिससे परमाणु बम को पॉकेट परमाणु टाइम बम की शक्ल दी जा सकती थी।  इससे बहुत ही कम रेडियोएक्टिव पदार्थ का इस्तेमाल कर छोटे छोटे बम तैयार किये जा सकते थे। वो इस आविष्कार से अपने भारत को एक शक्तिशाली मुल्क बनते हुए देखना चाहता था। लेकिन अक्सर जैसा आदमी सोचता है वैसा होता नहीं है।
बख्तावर सिंह पाक अधिकृत कश्मीर में बसा हुआ एक पाकिस्तानी अफसर था। बख्तावर सिंह की पहुँच का इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता था कि बड़े बड़े नेता भी उसकी बात नहीं टाल सकते थे। वो जो कहता था वो होता था। वो जो चाहता था उसे मिलता था। अब वो विजय देव को उसके फोर्मुले समेत चाह रहा था। उसने विजय देव को पा भी लिया था। बस अब देरी थी तो विजय से उसके ज्ञान को निकलवाने की।
मोना चौधरी वो क़यामत थी जिससे दिल्ली के अंडरवर्ल्ड का हर कोई वाकिफ था। सबको पता था वो पैसों के लिए कुछ भी कर सकती थी केवल अपने देश से गद्दारी को छोड़कर। मोना चौधरी ही ऐसी शख्स थी जिसने बख्तावर के दो बार दांत खट्टे किये थे।  जब संयोगवश वो विजय से टकराई तो उसने उसकी जान बचाने का वादा किया।  वो हर हाल में ये वादा निभाना चाहती थी। वो जानती थी विजय के आविष्कार की कीमत क्या है और इसकी सही जगह क्या है। लेकिन वो ये भी जानती थी कि ये सब अब आसान होने वाला नहीं था।
बख्तावर एक घायल शेर के सामान था और विजय उसकी माँद में फंसा शिकार। विजय को निकालने के लिए एक खूनी संग्राम होना तय था।
तो क्या निकला इस महासंग्राम का नतीजा? क्या बख्तावर वो पा सका जो वो चाहता था? क्या मोना चौधरी अपना वादा निभा पायी? क्या विजय अपना सपना पूरा कर पाया?
इन सब सवालों के जवाब तो आपको इस उपन्यास को पढ़कर ही मिलेंगे।

अनिल मोहन जी का उपन्यास जान बची तो लाखों पाए खत्म किया। ये मोना चौधरी सीरीज का पहला उपन्यास था जिसे मैंने पढ़ा है। इससे पहले मोना चौधरी को जिस उपन्यास में पढ़ा था उसमे देवराज चौहान भी मौजूद था।
जितना इस उपन्यास को पढ़कर जान पाया उससे ये बात स्पष्ट है कि मोना चौधरी दिल्ली में रहने वाली एक मेर्सनरी है। जो उसे पैसे देता है वो उसके लिए काम करती है। फिर पैसे देने वाला कोई गैंगस्टर ही क्यों न हो। इसके इलावा वो अपना मतलब निकालने के लिए अपने हुस्न का इस्तमाल करना भी बखूबी जानती है। इसमें उसके कुछ साथी है जो उसकी हर वक्त मदद करते हैं। एक पारसनाथ नामक व्यक्ति है और दूसरा नीलू महाजन नामक व्यक्ति जो उसे बेबी कहकर पुकारता है। नीलू महाजन मोना को अपनी बच्ची जैसा मानता है। उनके बीच के इस रिश्ते ने मुझे प्रभावित किया। हाँ, पारसनाथ इस उपन्यास में इतना बड़ा किरदार नहीं था। उसका एक दो बार केवल नाम ही आया था।
उपन्यास का कथानक तेज रफ़्तार वाला था। कहीं पे भी कहानी में एक्शन कम नहीं हुआ जिस वजह से उपन्यास मनोरंजक था।
हाँ, एक दो बातें मुझे इस उपन्यास में खटकी जरूर थी। पहली ये कि उपन्यास पढ़ते वक्त एक दो बार ऐसा लगा था कि मोना चौधरी ने अपने जिस्म का इस्तेमाल वहाँ भी किया जहाँ करना इतना जरूरी नहीं था। इसलिए इधर ऐसा एहसास हुआ कि सेक्स को जबरदस्ती डाला गया हो। और उपन्यास की शुरुआत में वो एक ऐसे व्यक्ति को पकडती है जो एक डॉन का दाहिना हाथ था।  अब मुझे हैरत इस बात की हुई कि इतना महत्वपूर्ण व्यक्ति बिना किसी संरक्षण के रह रहा था।  उसके तो लाखों दुश्मन होंगे तो अपनी सुरक्षा का बंदोबस्त तो उसे करना चाहिए था। लेकिन ऐसा कुछ था नहीं। मोना एक कमरे के दरवाजा खटखटाती है और उसे घेर लेती है। कहानी में मोना एक व्यक्ति के लिए कुछ काम करती है लेकिन वो व्यक्ति उसे पैसे देने के नाम पर उसकी सुपारी दे देता है। मोना बच तो जाती है लेकिन उसने उस व्यक्ति के साथ क्या किया ये उपन्यास में नहीं दिखता। इसी दौरान उपन्यास अपनी मूल कहानी की तरफ बढ़ जाता है और कहानी के इस बिंदु को नज़रअंदाज कर देता है।  अगर उपन्यास खत्म करने से पहले इसे भी सुलटा लेते तो वो अधूरापन नहीं महसूस होता जो कि मुझे हुआ।
बाकी किरदारों की बात करें तो बख्तावर सिंह और मोना चौधरी की दुश्मनी के विषय में पढने में मज़ा आया। ये उनकी तीसरी लड़ाई थी और इसका अंजाम तो आप उपन्यास पढ़कर ही जान पायेंगे। हाँ, एक बात मेरे समझ में नहीं आती कि उपन्यासों या फिल्मो के खलनायक इतना बोलते क्यों हैं। बख्त्वार के पास मोना को मारने के इतने मौके थे लेकिन वो अपने दंभ में केवल बोलता जाता था जिससे मोना को वक्त मिल जाता था। ऐसा व्यक्ति इतने उच्च पद पर कैसे विराजमान हो सकता है ये सोचने वाली बात है। लेकिन फिर चूँकि ये उपन्यास केवल एंजोयमेंट के लिए था तो इस बात को मैंने दरकिनार कर दिया।
बाकी विजय देव इसमें एक महत्वपूर्ण किरदार था। वो जवान है और इसी वजह से एक आदर्शवादी (आइडियलिस्ट) इन्सान है। उसक किरदार ठीक तरीके से रचा गया था। बाकी के किरदार भी उपन्यास के कथानक के समान ठीक ठाक थे।
अगर आप ऐसी एक्शन फिल्मो के शौक़ीन हैं जहाँ आप रियलिटी को ससपेंड करके एन्जॉय कर पाएं तो आप इस उपन्यास का लुत्फ़ उठा सकेंगे। लेकिन वहीं अगर आप ऐसी उपन्यास पढने के आदी है जहाँ आपको सब चीज यथार्थ परक चाहिए तो ये उपन्यास आपको निराश कर सकता है।
उपन्यास ने मेरा तो भरपूर मनोरंजन किया। एक दिन में इसे खत्म करना अपने आप में इस बात का सबूत है।  पहले मैंने केवल अनिल मोहन के देवराज चौहान सीरीज के उपन्यास या थ्रिलर उपन्यास  ही पढ़े थे लेकिन अब मोना चौधरी सीरीज के उपन्यासों की तरफ भी ध्यान दूंगा।
क्या आपने इस उपन्यास को पढ़ा है? अगर हाँ तो आपको ये कैसा लगा? अपनी राय कमेंट बॉक्स में जरूर दीजियेगा। अगर आपने इसे नहीं पढ़ा है तो आप इसे निम्न लिंक से मंगवा सकते है:
राज कॉमिक्स
अमेज़न
अगर आप मोना चौधरी सीरीज को पढ़ते आये हैं और इस सीरीज के कुछ उम्दा उपन्यासों से वाकिफ है तो उनके विषय में जरूर बताइयेगा। 


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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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2 Comments on “जान बची तो लाखों पाए – अनिल मोहन”

  1. अच्छा लेख 👏👏ये मैंने मोना चौधरी सीरीज का पहला उपन्यास पढ़ा था, 18-19 साल पहले और बहुत अच्छा लगा था।

    1. जी आभार… मुझे भी पसंद आया था…

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