कहानी: खूनी – आचार्य चतुरसेन शास्त्री

कहानी: खूनी - आचार्य चतुरसेन शास्त्री

उसका नाम मत पूछिए। आज दस वर्ष से उस नाम को हृदय से और उस सूरत को आँखों से दूर करने को पागल हुआ फिर रहा हूँ। पर वह नाम और वह सूरत सदा मेरे साथ है। मैं डरता हूँ, वह निडर है; मैं रोता हूँ, वह हँसता है; मैं मर जाऊँगा, वह अमर है।

मेरी-उसकी कभी की जान-पहचान न थी। दिल्ली में हमारी गुप्त सभा थी। सब दल के आदमी आए थे, वह भी आया था। मेरा उसकी ओर कुछ ध्यान न था। वह मेरे ही पास खड़ा एक कुत्ते के पिल्ले से किलोल कर रहा था। हमारे दल के नायक ने मेरे पास आकर सहज गम्भीर स्वर में धीरे से कहा, “इस युवक को अच्छी तरह पहचान लो, इससे तुम्हारा काम पड़ेगा।”

नायक चले गए, और मैं युवक की और झुका। मैंने समझा, शायद नायक हम दोनों को कोई एक काम सुपुर्द करेंगे।

मैंने उससे हँसकर कहा, “कैसा प्यारा जानवर है!” युवक ने कच्चे दूध के समान स्वच्छ आँखें मेरे मुख पर डालकर कहा, “काश! मैं इसका सहोदर भाई होता!” मैं ठठाकर हँस पड़ा। वह मुस्कराकर रह गया। कुछ बातें हुईं। उसी दिन वह मेरा मित्र बन गया।

दिन पर दिन बीतते गए। अछूते प्यार की धाराएँ दोनों हृदयों में उमड़कर एक धार हो गयीं। सरल, अकपट व्यवहार पर दोनों एक-दूसरे पर मुग्ध होते गए। वह मुझे अपने गाँव ले गया। किसी तरह न माना। गाँव के एक किनारे स्वच्छ अट्टालिका थी। वह गाँव के ज़मींदार का बेटा था, इकलौता बेटा। हृदय और सूरत का एक-सा। उसकी माँ ने दो दिन में ही मुझे बेटा कहना शुरू कर दिया। अपने होश के दिनों में मैंने वहाँ सात दिन माता का स्नेह पाया। फिर चला आया। अब तो बिना उसके मन न लगता था। दोनों के प्राण दोनों में अटक रहे। एक दिन उन्मत्त प्रेम के आवेश में उसने कहा था, “किसी अघट घटना से जो हम दोनों में एक स्त्री बन जाए तो मैं तो तुमसे ब्याह ही कर लूँ।”

नायक से कई बार पूछा, “क्यों तुमने मुझे उससे मित्रता करने को कहा था!”

वे सदा यही कहते, “समय पर जानोगे।”

गुप्त सभा की भयंकर गम्भीरता सब लोग नहीं जान सकते! नायक मूर्तिमान भयंकर गम्भीर थे।

उस दिन भोजन के बाद उसका पत्र मिला। वह मेरी पॉकेट में अब भी सुरक्षित है। पर किसी को दिखाऊँगा नहीं। उसे देखकर दो साँस सुख से ले लेता हूँ, आँसू बहाकर हल्का हो जाता हूँ। पुराने रोगी को जैसे कोई दवा खुराक बन जाती है, मेरी वेदना को यह चिट्ठी खुराक बन गयी है।

चिट्ठी पढ़ भी न पाया था, नायक ने बुलाया। मैं सामने सरल स्वभाव से खड़ा हो गया। बारहों प्रधान हाज़िर थे। सन्नाटा भीषण सत्य की तस्वीर खींच रहा था। मैं एक ही मिनट में गम्भीर और दृढ़ हो गया। नायक की मर्मभेदिनी दृष्टि मेरे नेत्रों में गड़ गयी, जैसे तप्त लोहे के तीर आँख में घुस गए हों। मैं पलक मारना भूल गया, मानो नेत्रों में आग लग गयी हो। पाँच मिनट बीत गए। नायक ने गम्भीर वाणी से कहा, “सावधान! क्या तुम तैयार हो?”

मैं सचमुच तैयार था। मैं चौंका नहीं। आखिर में उसी सभा का परीक्षार्थी सभ्य था। मैंने नियमानुसार सिर झुका दिया। गीता की रक्तवर्ण रेशमी पोथी धीरे से मेज़ पर रख दी गयी। नियमपूर्वक मैंने दोनों हाथों से उठाकर उसे सिर पर चढ़ा लिया।

नायक ने मेरे हाथ से पुस्तक ले ली। क्षण-भर सन्नाटा रहा। नायक ने एकाएक उसका नाम लिया और क्षण-भर में छह नली रिवॉल्वर मेज़ पर रख दिया।

वह छह अक्षरों का शब्द उस रिवॉल्वर की छह गोलियों की तरह मस्तिष्क में घुस गया। पर मैं कम्पित न हुआ। प्रश्न करने और कारण पूछने का निषेध था। नियमपूर्वक मैंने रिवाल्वर उठाकर छाती पर रखा और उस स्थान से हटा। तत्क्षण मैंने यात्रा की। वह स्टेशन पर हाज़िर था। अपने पत्र और मेरे प्रेम पर इतना भरोसा उसे था। देखते ही लिपट गया। घर गये, चार दिन रहे। वह क्या कहता है, क्या करता है, मैं देख-सुन नहीं सकता। शरीर सुन्न हो गया था, आत्मा दृढ़ थी, हृदय धड़क रहा था; पर विचार स्थिर थे।

चौथे दिन प्रातःकाल जलपान करके हम स्टेशन की ओर चले। तांगा नहीं लिया, जंगल में घूमते जाने का विचार था। काव्यों की बढ़-बढ़कर आलोचना होती चलती थी। उस मस्ती में वह मेरे मन की उद्विग्नता भी न देख सका। धूप और खिली, पसीने और बह चले। मैंने कहा, “चलो, कहीं छाँह में बैठे।” धनी कुंज सामने थी। वहीं गए। बैठते ही जेब से दो अमरूद निकालकर उसने कहा, “सिर्फ दो ही पके थे, घर के बगीचे के हैं। यहीं बैठकर खाने के लिए लाया था; एक तुम्हारा, एक मेरा।” मैंने चुपचाप अमरूद लिया और खाया। एकाएक मैं उठ खड़ हुआ। वह आधा अमरूद खा चुका था। उसका ध्यान उसी के स्वाद में था। मैंने धीरे से रिवॉल्वर निकाला, घोड़ा चढ़ाया और कम्पित स्वरों में उसका नाम लेकर कहा, “अमरूद फेंक दो और भगवान का नाम लो, मैं तुम्हें गोली मारता हूँ।”

उसे विश्वास न हुआ। उसने कहा, “बहुत ठीक, पर इसे खा तो लेने दो।” मेरे धैर्य छूट रहा था। मैंने दबे कंठ से कहा, “अच्छा खा लो।” खाकर वह खड़ा हो गया; सीधा तनकर। फिर उसने कहा, “अब मारो गोली।” मैंने कहा, “हँसी मत समझो, मैं तुम्हें गोली ही मारता हूँ, तुम भगवान का नाम लो।” उसने हँसी में ही भगवान का नाम लिया और फिर वह नकली गम्भीरता से खड़ा हो गया। मैंने एक हाथ से अपनी छाती दबाकर कहा, “ईश्वर की सौगन्ध! हँसी मत समझो, मैं तुम्हें गोली मारता हूँ।”

मेरी आँखों में वही कच्चे दूध के समान स्वच्छ आँखें मिलाकर उसने कहा, “मारो।”

क्षण-भर भी विलम्ब करने से मैं कर्तव्यच्युत हो जाता। पल-पल में साहस डूब रहा था। दनादन दो शब्द गूँज उठे। वह कटे वृक्ष की तरह गिर पड़ा। दोनों गोली छाती को पार कर गयीं।

मैं भागा नहीं। भय से इधर-उधर मैंने देखा भी नहीं, रोया भी नहीं। मैंने उसे गोद में उठाया। मुँह की धूल पोंछी। रक्त साफ किया। आँखों में इतनी ही देर में कुछ का कुछ हो गया था। देर तक उसे गोद में लिए बैठा रहा, जैसे माँ सोते बच्चे को जागने के भय से निश्चल लिए बैठी रहती है।

फिर मैं उठा। ईंधन चुना, चिता बनायी और जलायी–अंत तक वहीं बैठा रहा।

बारहों प्रधान हाज़िर थे। उसी स्थान पर जाकर मैं खड़ा हुआ। नायक ने नीरव हाथ बढ़ाकर रिवॉल्वर माँगा। रिवॉल्वर दे दिया। कार्य सिद्धि का संकेत सम्पूर्ण हुआ। नायक ने खड़े होकर वैसे ही गम्भीर स्वर में कहा, “तेरहवें प्रधान की कुर्सी हम तुम्हें देते हैं। मैंने कहा तेरहवें प्रधान की हैसियत से मैं पूछता हूँ कि उसका अपराध मुझे बताया जाए”

नायक ने नम्रतापूर्वक जवाब दिया, “वह हमारे हत्या-सम्बन्धी षड्यन्त्रों का विरोधी था। हमें उस पर सरकारी मुखबिर होने का संदेह था।” मैं कुछ कहने योग्य न रहा। नायक ने वैसी ही गम्भीरता से कहा, “नवीन प्रधान की हैसियत से तुम यथेष्ट एक पुरस्कार माँग सकते हो।”

अब मैं रो उठा। मैंने कहा, “मुझे मेरे वचन फेर दो। मुझे मेरी प्रतिज्ञाओं से मुक्त कर दो, मैं उसी के समुदाय का हूँ! तुम लोगों में नंगी छाती पर तलवार के घाव खाने की मर्दानगी न हो तो तुम अपने को देशभक्त कहने से इन्कार कर दो। तुम्हारी इन कायर हत्याओं को मैं घृणा करता हूँ। मैं हत्यारों का साथी, सलाही और मित्र नहीं रह सकता! तुम तेरहवीं कुर्सी को जला दो।”

नायक को क्रोध न आया। बारहों प्रधान पत्थर की मूर्ति की तरह बैठे रहे। नायक ने उसी गम्भीर स्वर में कहा, “तुम्हारे इन शब्दों की सज़ा मौत है। पर नियमानुसार तुम्हें क्षमा पुरस्कार में दी जाती है।”

मैं उठकर चला आया। देशभर घूमा, कहीं ठहरा नहीं। भूख, प्यास, विश्राम और शांति की इच्छा ही मर गयी दीखती है। बस, अब वही पत्र मेरे नेत्र और हृदय की रोशनी है। मेरा वारंट निकला था, मन में पाया कि फाँसी पर जा चढ़ूँ फिर सोचा, मरते ही उस सज्जन को भूल जाऊँगा। मरने में अब क्या स्वाद है? जीना चाहता हूँ। किसी तरह सदा जीते रहने की लालसा मन में बसी है। जीते-जी ही मैं उसे देख और याद रख सकता हूँ।


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