क्रिस्टल लॉज – सुरेन्द्र मोहन पाठक

रेटिंग : ४/५
उपन्यास जनवरी  ३ से लेकर  जनवरी ६ के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या :
प्रकाशक : हार्पर हिंदी
सीरीज : मुकेश माथुर #४

गोरई में स्थित क्रिस्टल लॉज के मालिक  अभय सिंह राजपुरिया की गोरई में बहुत इज्जत थी। वो दान पुण्य करने वाले आदमी और अपनी भलमनसाहत के लिए मशहूर थे। इसके इलावा वो अपने तल्ख़ मिजाज के लिए भी उतने ही जाने जाते थे जितने कि अपनी भलमनसाहत के लिए।  वे हृदय के रोगी थे और कई दिनों से उसके लिए जीटाप्लेक्स नाम की गोली लेते थे। जब उन्ही गोलियों की ओवरडोज़ से उन्हें मृत पाया गया तो पहले ये आत्महत्या का केस माना  गया।

लेकिन चूँकि मामला हाई प्रोफाइल था तो एसीपी  साहब ने इस केस के हर कोण को देखने के लिए इंस्पेक्टर अशोक सावंत को उधर भेजा। तहकीकात से कुछ ऐसे सबूत सामने आये कि इस बात में कोई दो राय नहीं रही कि ये क़त्ल का केस था। और सबूतों के आधार पर एक व्यक्ति को  पुलिस ने गिरफ्तार भी कर दिया। वो व्यक्ति कमलेश दीक्षित था जिसे राजपुरिया सहाब ने कुछ दिन पूर्व ही बड़ी बेज्जती करके निकाला था।
वहीं मुंबई में मुकेश माथुर ने अपने बॉस आनंद आनंद एंड एसोसिएट्स से अलग होकर अपनी नयी फर्म खोल दी थी। उसका ऑफिस पहले वाले ऑफिस में ही था। लेकिन यह बात बड़े आनंद साहब को नागवार गुजरी थी।
दिल्ली में उनके भतीजे के साथ जो बीती थी उसे वो नहीं भूल पाये थे। और अभी तक मुकेश के साथ नाराज थे। मुकेश ने फर्म तो खोल दी थी लेकिन उसके पास केस के नाम पे कुछ भी नही  था। ऐसे में जब क्रिस्टल लॉज वाले केस की खबर उसे लगी तो उसने इसमें दिलचस्पी लेनी शुरू की। और उसने कमलेश दीक्षित की पहरवी करने की ठानी।

लेकिन मुकेश माथुर को नहीं पता था कि इस बार बतौर सरकारी वकील बड़े आनंद साहब ही उसके विपक्ष में खड़े थे।
क्या मुकेश का मुवक्किल सच में बेगुनाह था?क्या मुकेश एक बार फिर अपने गुरु को हराकर अपने मुवक्किल को बचा पायेगा?और अगर राजपुरिया साहब का क़त्ल हुआ था तो आखिर उनका कत्ल किसने और क्यों किया था?
इन सब सवालों के जवाब तो आपको इस उपन्यास को पढ़ने के पश्चात ही मालूम होंगे।

उपन्यास की बात करूँ तो उपन्यास मुझे पूरा पैसा वसूल लगा। यह मुकेश माथुर सीरीज का चौथा उपन्यास है। इससे पहले का उपन्यास वहशी था जो कि मैंने पढ़ा था। इस उपन्यास की कहानी वहीं से शुरू होती है जहाँ पर वहशी की खत्म होती है। लेकिन अगर आपने वहशी नहीं पढ़ा है तो आप इस उपन्यास को एक एकल उपन्यास की तरह पढ़कर भी इसका आनंद ले सकते हैं।

मुकेश माथुर का किरदार मुझे पसंद आया। वो एक ऐसा व्यक्ति है जो अपने उसूलों पर टिका रहता है। पहले उसके अंदर आत्मविश्वास की कमी थी क्योंकि उसके गुरु ही उसे किसी लायक नहीं समझते थे। लेकिन इस उपन्यास में उसके अंदर आत्मविश्वास दिखलाई देता है। लेकिन अभी भी वो सीख रहा है। वो गलतियाँ भी करता है और उनसे सीखता है। और यही गुण मुकेश माथुर को एक जीवंत किरदार बनाते हैं। इस उपन्यास में भी कई बार वो अपनी दलील में कुछ गलितयाँ करता है लेकिन फिर वो उनसे उभर भी आता है। 
उसके इलावा उसके समुख इस बार बड़े आनंद साहब हैं। ये सच में एक डेविड और गोलियाथ सरीखा मुकाबला है। आनंद साहब की दलीलो में उनका अनुभव है और कई बार वो प्रभावित भी करती हैं। लेकिन वो अपने ओवर कॉन्फिडेंस में एक गलती करते हैं और जिसका खामियाज़ा उन्हें भुगतना पड़ता है। वो गलती है अपने प्रतिद्वंदी को कम आँकने की।
उपन्यास के बाकी किरदार भी कहानी के हिसाब से एकदम सटीक हैं। पाठक सर की मुम्बईया  हिंदी की पकड़ बेहतरीन है तो उनके मुम्बईया किरदारों को पढ़कर मज़ा आ जाता है। उपन्यास में ये रहस्य अंत तक बरकरार रहता है कि क़त्ल किसने किया? और वो क्यों हुआ? इस कारण उपन्यास को पढ़ने का मज़ा बढ़ जाता है। क्योंकि आप दो चीज़ों का इन्तेजार करते हैं। एक तो ये जानने का कि मुकेश अपने मुवक्किल को कैसे बचाता है और एक ये कि असल कातिल कैसे क़ानून के कब्जे में आता है। 
अंत में इतना ही कहूँगा। वहशी के बाद जो उम्मीद मुकेश माथुर सीरीज से पाठक साब से थी उसमे वो बिलकुल खरे उतरे हैं। अगर आप एक लीगल मिस्ट्री पढ़ने के शौक़ीन हैं तो ये उपन्यास आपको निराश नहीं करेगा।
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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर उन्हें लिखना पसंद है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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