उपन्यास ख़त्म करने की तारीक :१५ फरबरी २०१५
संस्करण विवरण :
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या : ४३५ | प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पहला वाक्य :
काश यह मौत होती है !
चाक की कहानी वैसे तो लेखिका ने अतरपुर गाँव में बसाई है लेकिन ये कहानी भारत के किसी भी गाँव की हो सकती है। रेशम के पति के देहांत के छः महीने बाद जब उसके ससुराल वालों को पता चलता है कि वो गर्भवती है तो उधर हड़कम्प मच जाता है। ये बच्चा किसका है ? इस बात का कहीं खुलासा भी नहीं होता है और न रेशम ही ये बताने को तैयार होती है। फिर एक दुर्घटना होती है और उसमे रेशम की मौत हो जाती है। रेशम की बहन सारंग भी उसी गाँव की बहु है और जानती है ये दुर्घटना नहीं अपितु एक क़त्ल है। जानता तो सारा गाँव है लेकिन वो इसे दुर्घटना ही मानना चाहते हैं और इसी ग़लतफ़हमी में रहना चाहते हैं। और इसी घटना से हम दाखिल होते हैं अतरपुर गाँव में जहाँ ऐसी दुर्घटनायें होना आम बात है और अक्सर ऐसी दुर्घटनायें उन्ही औरतों के साथ होती हैं जो गाँव के अलिखित क़ानून को मानने से इंकार कर देती हैं। हम गाँव में दाखिल होते हैं और धीरे धीरे उसके असली चेहरे से वाकिफ होते हैं। एक शांत वातावरण वाले ग्राम्य जीवन की परतें उतरने लगती है और जो चेहरा इन परतों के उतरने के बाद सामने आता है वो खौफनाक तो है ही और तो और ग्रामीण लोगो के सीधे साधे होने की छवि को भी दरकिनार करता है। ऐसा क्या दिखता है? ये तो आपको इस बेहतरीन उपन्यास को पढने के बाद ही पता लग पायेगा।
अतरपुर गाँव भारत के अन्य गाँवों जैसा ही है। पहली नज़र में देखें तो ये शहरों में जो गाँव की छवि बनायीं गयी है (शान्त वातावरण और सीधे साधे ग्रामीण लोग जो शान्ति से ग्राम्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं) में एक दम खरा उतरता है। पर जब व्यक्ति यहाँ रहना शुरू करता है तो वो असली गाँव से रूबरू होता है। ये उपन्यास पढ़ते समय आप ऐसा महसूस करते हैं कि आप भी इसी गाँव में जीवन यापन कर रहे हैं। पात्र इतने जीवंत हैं कि लगता ही नहीं कि ये किसी के कल्पना की उपज हैं, ऐसा लगता है कि नाम बदलकर कोई सच्ची घटना को लेखिका ने आपके सम्मुख पेश किया है (शायद ऐसा है भी )। गाँव की आत्मा को निकाल कर लेखिका ने पाठक के सामने प्रस्तुत किया है। पाठक जब इस आत्मा से मिलता है तो पाता है ये जख्मी है ,चोटिल है और कराह रही है। इस आत्मा में बसा हुआ है दर्द गुलकंदी, रेशम जैसी औरतों का है जो मर्यादा और झूठी शान के नाम पर घुट घुट के जीने के लिए विवश हो जाती हैं या फिर जब वे मर्ज़ी करने पे आती हैं तो उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता है। उसके ऊपर घाव हैं रंजीत जैसे युवाओं के टूटे सपनों के जो अपनी पढाई को गाँव के भले के लिए लगाना चाहते थे लेकिन राजनीति के दलदल में फँस कर न उनके सपने टूटते हैं बल्कि वो भी उसी तरह मलिन हो जाते हैं जिस तरह के लोगों से वो कभी नफरत करते थे।
लेकिन ऐसा नहीं है कि केवल घाव ही हैं कुछ ऐसी बातें भी हैं इन गाँव वालों में जिन्होंने अतरपुर कि आत्मा को मरने नहीं दिया। उधर स्त्रियाँ आपस में भले ही लड़े लेकिन वो अंत में एक साथ एक जुट हो जाती हैं। इसी गाँव में दलवीर जैसे ससुर और भंवर जैसा भाई भी है। वो जानते हैं कि सही क्या है और गलत क्या? और सही का साथ देने में हिचकिचाते नहीं है फिर चाहे वो सही उनके अपने किसी के लिए बुरा साबित हो। जहाँ औरतों को दबाकर रखने की परंपरा है उधर वो सारंग को उठने की हिदायत ही नहीं देते अपितु उसमे उसकी मदद भी करतें हैं।
बदलाव हर जगह आता है और अतरपुर में भी आ रहा है। कहते हैं जब कुछ नष्ट होता है तो उसकी जगह जो चीज़ पनपती है वो उससे भी बेहतर होती है जो पहले वहाँ मौजूद थी। जिन घटनाओं ने अतरपुर की आत्मा पे घाव दिए उन्होंने ही बदलाव के चाक को उधर चलाने का काम भी किया। इन्ही घटनाओं के अन्धकार से उभरकर ही सारंग नैनी एक उम्मीद की रौशनी के सामान गाँव के धरातल पर आई। सारंग नैनी उन महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं जिन्होंने थक हारकर अपनी ज़िन्दगी की बागडोर अपने हाथ में लेना का फैसला कर देती हैं। सच में वो इस उपन्यास की नायिका है। वो प्रेरित करती है नारी को आवाज़ उठाने के लिए और अपना अधिकार लेने के लिए। और इसमें उसकी मदद करते हैं गाँव के ही कुछ लोग जो बताता है कि हर कोई एक जैसा नहीं होता। ये कैसे होता है इस विषय में तो आप इस उपन्यास को पढ़कर ही जान पायेंगे। ऐसा नहीं है कि वो सब कुछ सही करती है, उसके कुछ विचारों और कुछ कार्यों से मैं भी सहमत नहीं हुआ। लेकिन यही तो इस किरदार को कार्डबोर्ड करैक्टर के जगह तीन आयामी किरदार बनाता है और यथार्थ के ज्यादा निकट लाता है।
अभी तो केवल इतना कहूँगा उपन्यास मुझे बेहद पसंद आया । जो व्यक्ति ग्राम्य जीवन से परिचित हैं वो अतरपुर के लोगो में शायद अपने गाँव की छवि देखें और जिन्होंने ग्राम्य जीवन को अनुभव नहीं किया है उन्हें शायद एक नया अनुभव मिलेगा । ग्राम्य जीवन और वहाँ की राजनीती और सामाजिक व्यवस्था का सजीव चित्रण इधर किया गया है। मैं गाँव में तो नहीं रहा लेकिन एक कसबे में रहता था और उधर भी हाल कुछ ऐसा ही था । हाँ ,थोड़ा इधर से कम था लेकिन वो इसीलिए था क्योंकि उधर भी अलग अलग गाँव के आये लोग रहते थे । लेकिन गाँव में जहाँ कई पीढ़ियों से परिवार बसे हुए हैं उधर हालत ऐसे ही होती है । जाति भेद का अनुभव तो मैंने गाँव में अभी भी किया है । खैर, उपन्यास काफी अच्छा है और इसके किरदारों का जीवंत चित्रण भी उन चरित्रों से एक रिश्ता सा कायम कर देता है। मैं उनके दुःख में दुःखी हुआ, उनकी रूढ़ियों से बंधे होने पर मुझे गुस्सा भी आया, और जब उन किरदारों को ख़ुशी मिली तो मुझे भी ख़ुशी का एहसास मिला। एक अच्छे उपन्यास की यही तो कसौटी होती है कि आप उसके किरदार से जुडें और उससे प्रभावित हों।
अगर आपने उपन्यास को नहीं पढ़ा तो आपको ज़रूर इस बेहतरीन उपन्यास को पढ़ना चाहिए। अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो इसके विषय में अपनी राय देना नहीं भूलियेगा।
उपन्यास से कुछ पंक्तियाँ :
जन्म और जन्मस्थान आदमी के निजी होते हैं, जिनसे वो अपनी भावना के जरिये जुड़ा रहते है। ये कोमल तंतु न मरते हैं न टूटते हैं , केवल खिंचते हैं और टीसते हैं।
सारंग निर्भाव सी देखती रही। जैसे कोई शिकवा न हो रंजीत से, कोई आशा भी नहीं हो। भरोसा भी नहीं ….. यह आदमी कब सुर बदल ले ? बस डर समाया हुआ है मन में।
आप उपन्यास को निम्न लिंक्स के माध्यम से मँगवा सकते हैं:
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