संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 62 | प्रकाशक: रवि पॉकेट बुक्स | श्रृंखला: देवराज चौहान
किताब लिंक: किंडल
पहला वाक्य:
कॉलबेल की घण्टी घनघनाई।
आखिर शीला का कत्ल क्यों हुआ था?
क्या विजय शीला के खूनी को पकड़ पाया?
विजय – खुफिया एजेंसी का जासूस
पूरन सिंह – विजय का नौकर
रघुनाथ – पुलिस सुप्रीटेंडेंट
ब्लैक बॉय – विजय का चीफ
शीला – रघुनाथ की सेक्रेटरी
राघव रमन – शीला का पति
पवन – खुफिया एजेंसी का चीफ जासूस
एक्स थ्री उर्फ़ रमन सेन – खुफिया एजेंसी का एक जासूस
शेरा – गोआ का एक आपराधिक चरित्र
विलियम म्योर – गोवा का एक पादरी
मेरे विचार:
ख़ूबसूरती का कत्ल आबिद रिज़वी द्वारा लिखा गया विजय रघुनाथ श्रृंखला का लघु-उपन्यास है। यह लघु-उपन्यास रवि पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित अनिल मोहन के उपन्यास गुण्डागर्दी के साथ प्रकाशित हुआ है। मैंने यह किताब पढ़ने के लिए उठाई थी और फिर जब देखा इसमें एक लघु उपन्यास है तो पहले यह लघु-उपन्यास ही पढ़ डाला। चूँकि इस लघु-उपन्यास का देवराज चौहान या अनिल मोहन से कोई नाता नहीं था इसलिए मैंने सोचा इसके विषय में अलग पोस्ट बनाकर ही लिखा जाए।
विजय-रघुनाथ मेरी सीमित जानकारी के अनुसार श्री वेद प्रकाश काम्बोज के किरदार हैं। अपने वक्त में श्री काम्बोज जी ने काफी उपन्यास इस जोड़ी को लेकर लिखे थे। इसके बाद विजय नाम के किरदार को वेद प्रकाश शर्मा ने इस्तेमाल किया था और उन्होंने विजय विकास श्रृंखला के काफी उपन्यास लिखे थे। वहीं अब एम इकराम फरीदी ने भी विजय विकास को लेकर उपन्यास लिख रहे हैं। अगर मैं अपनी बात करूँ तो मैंने विजय-विकास श्रृंखला के इक्का दुक्का उपन्यास तो पढ़े हैं लेकिन विजय रघुनाथ श्रृंखला के उपन्यास अभी तक नहीं पढ़े थे। आबिद रिज़वी द्वारा विजय रघुनाथ को लेकर लिखा गया यह लघु-उपन्यास इस जोड़ी का मेरा पहला कारनामा है। इस कारनामें में जिस तरह का चित्रण आबिद रिज़वी साहब ने विजय का किया है वह इब्ने सफी के इमरान की याद दिलाता है।
विजय और रघुनाथ दोनों ही राजनगर नाम के काल्पनिक शहर के निवासी हैं। विजय एक तेज तर्रार जासूस है लेकिन वह अहमकाना हरकतें करता रहता है जिससे वह बेवकूफ लग सकता है लेकिन यह हरकतें वह केवल साथ वालों को धोखा देने के लिए ही करता है। रघुनाथ पुलिस का अफसर है जो कि अपने केस सुलझाने के लिए विजय की मदद लेता रहता है। रघुनाथ को यह इल्म नहीं है कि विजय खुफिया सर्विस का एजेंट है जो कि इस सर्विस का चीफ भी रह चुका है।
प्रस्तुत कृति की बात करूँ तो इसमें विजय और रघुनाथ दोनों ही मौजूद तो हैं लेकिन ज्यादातर कहानी विजय के इर्द गिर्द ही घूमती है। यह एक सीधी साधी कहानी है जिसकी शुरुआत ब्लैक बॉय, जो कि ख़ुफ़िया सर्विस का चीफ है और विजय का मातहत रह चुका है, की विजय को एक मामले की जानकारी देने से होती है। इसके बाद विजय कुछ कदम उठाता है और इन कदमों के परिणाम स्वरूप जो जानकारियाँ उसे मिलती जाती हैं उनकी रू में वह आगे बढ़ता चला जाता है।
कहानी गुप्तचरी से जुडी हुई है तो इसमें गुप्तचरी के तत्व भी मौजूद हैं। इसमें ख़ुफ़िया ट्रांसमीटर हैं, गुप्त नामों वाले एजेंट हैं और दुश्मन देश के ऐसे जासूस भी हैं जिनका मकसद भारत की बर्बादी है। कहानी आपको पुरानी जासूसी फिल्मों की याद दिलाती है।
कहानी की अच्छी बात यह है कि यह विजय का किरदार इसमें निखर कर आया है। विजय कैसा है और उसके जीवन के फलसफे क्या हैं वह इसमें दिखलाई देते हैं। विजय अपराध से नफरत करता है लेकिन अपराधियों से नहीं। यही कारण वह शेरू से उस तरह पेश आता है जिस तरह इस कहानी में आता है। वहीं विजय की झकझकी और उसका खुशनुमा रवैया कहानी को पठनीय बना देता है।
यह कहानी मुख्य उपन्यास के साथ एक फिलर के तौर पर दी गयी है और गुणवत्ता के मामले में यह एक फिलर जैसी लगती भी है। या फिर चूँकि कहानी को 62 पृष्ठों में ही लेखक को समेटना था तो वह इसे ज्यादा जटिल नहीं बना सकते थे इसलिए लेखक ने सीधी सपाट कहानी लिखी है। कहानी में ज्यादा घुमाव नहीं हैं। वहीं लेखक ने कहानी आगे बढाने के लिए ऐसे सरल रास्ते अपनाए हैं जिसके चलते कहानी वो प्रभाव नहीं छोड़ पाती है जो यह तब छोड़ पाती जब इस पर ढंग से काम किया होता।
उदारहण के लिए जब शीला का कत्ल कहानी में होता है तो कातिल एक चिट्ठी विजय के लिए छोड़ देता है। इसे चिट्ठी को छोड़ने के कारण विजय को यह पता चल जाता है कि कातिल किधर का रहने वाला है और वह उसी जगह तहकीकात के लिए चले जाता है। मुझे लगता है ऐसा कुछ कातिल को करने की आवश्यकता नहीं थी। विजय ने कातिल को देखा भी नहीं था इसलिए अगर वह चिठ्ठी नहीं भी छोड़ता तो विजय हवा में ही हाथ मारता रहता। लेकिन लेखक ने इधर चिट्ठी का आसान रास्ता चुना।
इसके बाद विजय के गोवा पहुँचने पर गुण्डे विजय पर हमला कर देते हैं और इस हमले के बाद विजय असल मुजरिम के काफी करीब आ जाता है। अब अगर गुण्डे हमला नहीं करते तो वह विजय को यह पता ही नहीं लगता कि असल मुजरिम कौन है। वहीं जिस तरीके से विजय पर हमला करवाया जाता है वह भी हास्यास्पद लगता है। कहानी के अंत में खलनायक अपने बॉस से बात करता रहता है जो कि विजय के विषय में बातें करता हुआ कहता है-
विजय ऐसा आदमी नहीं, जिसके विषय में सोचा जा सके कि उसकी मौत आसानी से हो सकती है। मुझे इस बात की जानकारी है कि उसने अनेकों बार चीन की पुलिस और वहाँ की ख़ुफ़िया मशीनरी को ..चीन की धरती में घुसकर उन्हें नाको चने चबवा दिए हैं।
मूर्ख सा दिखने वाला, मूर्खतापूर्ण बातें करना वाला वह अनोखा और निराला इनसान है।
कमाल की बात तो यह है कि उस पर गोलियाँ भी अपना कमाल नहीं दिखा सकती हैं। अच्छे-से-अच्छे निशाने वाला भी उस पर निशाना नहीं लगा पाता है अनगिनित गोलियों की बाढ़ से भी वह किस तरह बचकर निकल जाता है, यह बात दाँतों तले अंगुली दबा लेने वाली होती है …ओवर….!
“मैंने भी उसके विषय में बहुत कुछ सुना है श्रीमान!”
यानी विजय की खूबियो से खलनायक वाकिफ होता है लेकिन फिर भी उसे पकड़ने के लिए वह अपनी फ़ौज के छःलोग ही भेजता है। ये बात बेतुकी लगती है।
अगर कहानी में लेखक ने इन बातों को इस्तेमाल न करके इसे थोड़ा जटिल बनाया होता तो कहानी और रोचक हो जाती। अगर बिना चिट्ठी के विजय पहले सबूतों के आधार पर कातिल का पता लगाता और फिर गोवा में भी वह कातिल और खलनायक तक पहुंचने के लिए तहकीकात करता तो कहानी काफी रोमांचक हो सकती थी। अभी तो ऐसा लगता है जैसे सब कुछ विजय की झोली में गिरता चला जा रहा है और वह बस उसे पकड़ रहा है। कहानी का अंत भी जिस तरह से हुआ है वह निराश करता है। ऐसा लगता है जैसे पृष्ठों की कमी के चलते कहानी को जल्दबाजी में निपटा दिया गया है।
कहानी की एक और बड़ी कमी इसमें मौजूद प्रूफ और सम्पादन की गलतियाँ हैं। काफी वाक्य गलत लिखे हैं, नामों में कई जगह गड़बड़ हुई हैं और कई बार तो वाक्य ऐसे लिखे हुए हैं कि पढ़ते हुए अर्थ का अनर्थ हो जाता है।
उदाहरण के लिए जरा निम्न गलतियाँ देखिये।
इन सब स्थितियों को वहाँ नियुक्त सीक्रेट सर्विस के एजेंट जिसे विभाग में थ्री एक्स के गोपनीय नामऔर वास्तविक नाम रमन सेन से जाता जाना था। (पृष्ठ 205) इस वाक्य का क्या अर्थ है यह समझना मेरे लिए तो मुश्किल है। यह थ्री एक्स आगे जाकर कभी एक्स थ्री हो जाता है और कभी थ्री एक्स ही रहता है। ऐसे ही विलियम म्योर को विलियम प्यारे के नाम से भी शेरू द्वारा बुलवाया गया है। विजय विलियम प्यारे कहे तो समझ भी आता है लेकिन शेरू का बोलना समझ से परे है। 219 पृष्ठ में पूरे दो अनुच्छेद ऐसे हैं जिसमें खलनायक के नाम की जगह विजय का नाम इस्तेमाल किया गया है। यह पढ़ते हुए पाठक के रूप में समझ नहीं आता विजय अपने खिलाफ आने वाले व्यक्ति को क्यों मार गिराएगा और क्यों पुलिस उसकी जेब में होगी। बाद में सोचा इधर तो खलनायक का नाम होगा और तब बात समझ आने लगी।
लगा था जैसे वह पर जा कूदते ही वह गड़मड़ हो जाएगा। अगर गड़मड़ हो जाने के लिए विजय ने उस पर उछाल न डाली थी, बल्कि कुछ कर दिखाने का समय भी आ गया था। (पृष्ठ 208)
विजय के इस दिलेरी से भरे स्वर न केवल वे पाँचों गनधारी ही नहीं बल्कि स्टेनगन चालक भी बुरी तरह आतंकित हो गये थे। (पृष्ठ 209)
शेरू के पाँचों साथी स्टेशन वैगन में समाये ही थे कि विजय से धड़ से एक ह्वाई फायर दाग दिया। (पृष्ठ 211)
मैंने उसकी बात का वारंट कटा देने के लिए अपने सबसे जीवट वाले आदमी भेज दिए हैं। (पृष्ठ 226)
ऊपर कुछ गलतियाँ हैं जिन्हें मैंने नोट करके रख लिया। काफियों को मैंने नोट भी नहीं किया था। यह ऐसी गलतियाँ हैं जो दर्शाती हैं कि प्रकाशक ने बस ऐसे ही किताब छाप दी है। प्रकाशक उन बचे कुचे प्रकाशकों में से हैं जो कि पॉकेट बुक इंडस्ट्री में टिके हुए हैं। अगर वह ज्यादा देर तक टिकना चाहते हैं तो मुझे लगता है उन्हें थोड़ा व्यवसायिक होना होगा और किताब प्रकाशित करने से पहले कम से कम एक बार किताब की प्रूफ रीडिंग करवानी पड़ेगी। वहीं एक ढंग का सम्पादक रखकर कहानी की ऐसी कमजोरियों को भी दूर करवाना होगा। तभी कुछ हो सकता है वरना वो बचे कुचे पाठक भी खो देंगे।
अंत में यही कहूँगा कि यह लघु-उपन्यास अभी जैसा बना है उससे काफी बेहतर बन सकता था। अगर इसकी कहानी को ढंग से सम्पादित किया जाता और इस पर अधिक काम होता तो एक बेहतरीन कथा लोगों को पढ़ने को मिल सकती थी। अभी यह एक औसत कथा बन कर रह गयी है जिसे बस एक बार वक्त गुजारने के लिए पढ़ा जा सकता है।
लघु उपन्यास किंडल में मौजूद है।
किताब लिंक: किंडल
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गुण्डा गर्दी रवि पॉकेट बुक्स से सीधा सम्पर्क करके मँगवाई जा सकती है। उनका फेस बुक पृष्ठ निम्न है:
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आबिद रिज़वी
© विकास नैनवाल ‘अंजान’
यह सामान्य लघु उपन्यास है। एक बार पढा जा सकता है। समीक्षा उपन्यास से भी रोचक लगी।
धन्यवाद.
जी आभार…मुझे लगता है अगर कुछ बिन्दुओं पर कार्य किया जाए तो यह औसत से बेहतर हो सकता है…
आपने न केवल वस्तुपरक समीक्षा ही की है विकास जी वरन प्रकाशक को दर्पण भी दिखाया है । हिन्दी की पुस्तकों को ऐसी लापरवाही के साथ छापे जाने तथा प्रोडक्शन संबंधी भारी गड़बड़ियों के कारण भी पाठक पॉकेट बुक्स से दूर हुए हैं लेकिन न लेखक समझने को तैयार हैं, न प्रकाशक । हाँ, ऐसी पुस्तकों का मूल्य बढ़ाने का काम पिछले पंद्रह सालों से बराबर हो रहा है और वह भी पाठक वर्ग को दूर करने में निमित्त रहा है क्योंकि जब उपन्यास ख़रीदने वाले को ख़र्ची गई रक़म का मुनासिब सिला ही न मिले तो वह आगे ऐसी किताब ख़रीदने में दिलचस्पी क्यों लेगा, वो भी बढ़े हुए दाम पर ?
जी सर….कई बार तो मामूली सम्पादन भी प्रकाशक द्वारा नहीं किया गया रहता है जो कि दर्शाता है कि प्रकाशक के पास विज़न की कमी है। इसी विजन की कमी के चलते हिन्दी अपराध साहित्यकारों और उन्हें छापने वाले प्रकाशकों को अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा। परन्तु लगता है अभी भी उन्होंने सीख नहीं ली है।