दत्ता-शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

Rating:3/5
Finished On:december 13,2013

दत्ता शरदचंद्र जी का सन 1915 में प्रकाशित उपन्यास है। मूलत:
यह उपन्यास बंगाली भाषा में प्रकाशित हुआ था, किन्तु मेने इसका हिंदी
संस्करण पढ़ा।
यह उपन्यास भले ही कई वर्ष पहले लिखा गया हो किन्तु इसमें दर्शायी हुई बातें आज के समय में भी लागू होती हैं।

उपन्यास की कहानी एकदम सरल है।
हुगली ब्रांच स्कूल में सबसे मेधावी केवल तीन छात्र थे जो आपस में गहरे
दोस्त भी थे। ये तीनों थे – दिघड़ा गाँव का जगदीश,कृष्णपुर का वनमाली और
राधापुर का रास बिहारी। इनकी दोस्ती इतनी गहरी थी की उन्होंने साथ रहने और
आजीवन शादी न करके अपने जीवन को देश हित में लगाने का वादा किया था। लेकिन
ये कभी हो न सका। उनके जीवन ने ऐसा रुख लिया की वनमाली कृष्णपुर के जमींदार
होते हुए भी कलकत्ते में जाके बस गए और रासबिहारी उनकी ज़मीनों को मैनेज
करने लगे। जगदीश जो इन तीनो दोस्तों में सबसे निर्धन थे वे अपनी पत्नी की
मौत के बाद नशे और जुए के आदि हो गए। किन्तु वनमाली ने अपनी एकलौती
लड़की,विजया, की शादी जगदीश के बेटे,नरेन्द्र, के साथ तय कर दी थी। और इसी
तहत उन्होंने उनके बेटे को डाक्टरी की पढाई के लिए इंग्लैंड भेज दिया था।

लेकिन जब अचानक वनमाली की तबियत बिगड़ने से उनका स्वर्गवास हो जाता है तो
रास बिहारी और उसका पुत्र सारी  सम्पति के लालच में विजया से शादी निश्चित
हो जाने की घोषणा काफी लोगों के बीच में कर देतें हैं और नरेंद्र को रास्ते
से हटाने की कोशिश करते हैं।

क्या वो इस कोशिश में कामयाब होतें हैं और क्या नरेन्द्र
सचमुच विजया के योग्य था? ये सब जानने के लिए तो आपको उपन्यास को ही पढ़ना
पड़ेगा।
उपन्यास काफी रुचिकर था। इसमें काफी बातें दर्शायी गयी जो आज भी लोग करतें हैं।
जैसे विलास बिहारी का मंदिर की स्थापना करने के पीछे केवल ये मकसद था की उसकी कीर्ति चारो तरफ फेल जाए।
रास बिहारी तो मुंह में राम और बगाल में छुरी मुहावरे के एक उम्दा उदाहरण थे।
वही इस कहानी के एक पात्र दयाल बाबु हैं। वे कभी किसी के विषय में कुछ बुरा नहीं सोचते थे।
वे धर्म निश्पेक्ष थे और किसी भी धर्मं के प्रति उनका कोई बुरा नजरिया नहीं था।
‘किसी धर्मं के विरुद्ध शिकायत नहीं और अगर मनुष्य शुद्ध है तो सभी धर्मं
उसे शुद्ध वस्तु दे सकते हैं।’
 
यही उनकी सोच थी और ऐसी ही सोच हर किसी की
होनी  चाहिए।
वह जिसकी भी बात करते उसी के बारे में कहते कि वैसा भला आदमी संसार में
उन्होंने दूसरा देखा नहीं है। वृद्ध की मनुष्य को पहचानने की यह अदभुत
शक्ति देखकर नरेन्द्र मन ही मन खूब हंसा।


दूसरी जगह नरेन्द्र हैं जिन्होंने विलायत से डाक्टरी की थी
किन्तु वे इसे पैसे कमाने का जरिया न बनाकर दूसरों की मदद करने के लिए
इस्तेमाल करना चाहते थे। वे गाँव वालो को शिक्षित देखना चाहते थे। वे
शिक्षा के महत्त्व समझते थे और जानते थे कि शिक्षा से ही गाँव वालों का
विकास संभव था। इसलिए वे उन किसानो को सही तरह से किसानी करने की शिक्षा
देते थे।
अंत में जो आखरी पात्र बचता है वो है इस उपन्यास की नायिका
विजया का। विजया एक स्वाभिमानी और आत्म निर्भर स्त्री है। वह सच के लिए और
जो बात उसे सही लगती है उसको करने के लिए हिचकिचाती नहीं है। लेकिन उसके
अन्दर जरा भी दिखावा नहीं है और ममत्व की भी कमी नहीं है।
एसे किरदार काल्पनिक होते हुए भी सच्चे मालूम होते हैं। और यही इस उपन्यास का प्लस पॉइंट है।
 
केवल एक बात इस उपन्यास में मुझे खलती रही और वह था इस उपन्यास का शीर्षक।
यह ‘दत्ता’ का उपन्यास से किस तरह सम्बंधित है , इसका  मुझे कोई आईडिया
नहीं है।अगर आप इस विषय में रौशनी दाल सकते हैं तो मैं आपका आभारी रहूँगा ।
 
यह शरतचन्द्र जी का पहला उपन्यास था जिसे मैंने पढ़ा और बाकि के उपन्यास भी मैं पढूँगा।
अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आप अपनी राय को बताने से न हिचकिचाएगा।
अगर आप इस उपन्यास को पढ़ना चाहते हैं तो आप उसे निम्न लिंक्स के थ्रू मँगा सकते हैं ।

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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2 Comments on “दत्ता-शरतचंद्र चट्टोपाध्याय”

  1. यह उपन्यास मैंने 'वाग्दत्ता' शीर्षक से पढ़ा था बरसों पहले। दत्ता का अर्थ है 'दे दी गई' – आपको याद होगा कि विजया के पिता ने उसे पहले ही अपने मित्र जगदीश के पुत्र नरेन्द्र को 'दे' दिया था – अर्थात् यह वचन दे दिया था कि वे अपनी पुत्री का विवाह नरेन्द्र से करेंगे। इस नज़र से देखने पर यह शीर्षक एकदम सटीक लगेगा।

  2. पहले तो मैं आपका शुक्रग़ुज़ार हूँ ,जया जी ,कि आपने आपने अपने क़ीमती वक़्त से कुछ time इस पोस्ट पे टिपण्णी देने के लिये निकाला । आपने मेरी शंका को पुर्णतः खत्म कर दिया है और अब इसमें कोइ संदेह नहीं कि दत्ता यानी 'दे दी गयी ' का शीर्षक इस उपन्यास पे सटीक बैठता है ।

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