उपन्यास की कहानी कुछ हटके नहीं है। ये एक ऐसी लड़की की कहानी है जो इस बात का निर्णय नहीं ले पाती है की वो किससे प्रेम करती है। उसे पता रहता है की महिम गरीब है लेकिन फिर भी वो उससे शादी करने को तैयार हो जाती है। गरीबी उसने देखी नहीं रहती और महिम इससे भली भाँती परिचित रहता है ,इसलिए इस विवाह पर वो इतना हर्ष नहीं प्रकट करता है। लेकिन जब अचला का गरीबी से सामना होता है तो उसका मोह भंग हो जाता है और उसके विवाहित जीवन में एक कडुवाहट सी घुल जाती है। महिम और उसके बीच तकरार बढ़ जाती है।
दूसरी तरफ महिम है जो अपने भावनाओं को आसानी से व्यक्त नहीं कर पता है और अक्सर लोग उसे निष्ठुर समझते हैं। लेकिन पूरे उपन्यास में वो हमेशा अपनी संवेदनशीलता का परिचय देता रहता है। तीसरी और सुरेश है वो महिम से स्वाभाव में एक दम उल्टा है ,जहाँ महिम अपनी भावनाओं को अपने अंदर दबा के रखता है , वहीं सुरेश अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में हिचकिचाता नहीं है। जो चीज उसे चाहिए वो पाने के लिए वो भले बुरे का ख्याल भी नहीं करता है।
कहानी भले ही इन तीनों मुख्य किरदारों के बीच घूमती है लेकिन शरत जी ने इस कहानी के माध्यम से उस समय के समाज का चित्र भी कागज़ में उकेरने का प्रयास किया है। उन्होंने ब्रह्मो समाजी और हिन्दुओं के बीच जो तनाव था वो दर्शाया है। सुरेश एक हिन्दू होने के नाते ब्रह्मो समाजियों से घृणा करना अपना कर्त्तव्य समझता है और ये सोच अमूमन उस वक़्त ज्यादातर लोगों की थी (गाऊँ और शहर में )। इसके इलावा एक और पहलु जो उस समाज का उजागर करता है वो राक्षसी के ससुर जी का कथन जिसमे वो कहते हैं की ज्यादारतर लोग भले ही ब्रह्मो समाजी बन गए हो लेकिन वो अभी भी अपनी बेटियों को अच्छे हिन्दुओं की तरह ही पालते हैं। इस कथन से मैं ये सोचने पे मजबूर हुआ की क्या उस समय की उच्च मध्यमवर्गीय लोगो के लिए ब्रह्मो समाज का हिस्सा बनना एक सोशल फेड था। शरत चन्द्र जी के उपन्यास अपने समाज का चित्र भी पाठकों के सामने दिखाते हैं और इस उपन्यास में जो समाज का दृश्य उभरा है उसमें से ऊपर लिखी बातें मेरे मन में उभरीं।
अंत में उपन्यास के विषय में ये कहूँगा। कहानी तो मुझे ठीक ठाक लगी लेकिन इस कहानी के साथ जो उस समय का चित्र जो दिखाया है शरत बाबू ने उसने मुझे ज्यादा प्रभावित किया। दूसरी बात जो जमी है वो ये है की उन्होंने पात्रों को किसी morality में नहीं बाँधा।
पात्र काफी जीवंत लगे , अक्सर हमें सुरेश ,महिम और अचला जैसे किरदार हमें देखने को मिलते हैं। महिम में तो कुछ हद तक मैं भी अपने आपको देखता हूँ। लेकिन मेरी समानता अपनी भावनाओं को अंदर दबाकर रखने तक ही समाप्त हो जाती है। जिस शालीन तरीके से उसने अपने ऊपर होने वाली त्रासदियों को झेला वो शायद मैं न कर पाता। किसी भी रचना चाहे वो मूवी हो ,पेंटिंग हो या कोई उपन्यास , मुझे लगता है की अगर उसमें कहीं हम अपना अक्स देख पाते हैं तो वो रचना हमको ज्यादा आकर्षित करती है। और यही शायद इस उपन्यास और मेरे साथ हुआ।
खैर अगर आप इस उपन्यास को पढ़ना चाहते हैं तो आप इसे निम्न लिंक्स से मँगा सकते हैं :-
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आपने शरत बाबू की अमर कृति गृहदाह की यह समीक्षा वर्षों पूर्व लिखी थी जिसे मैंने अब जाकर पढ़ा. पढ़कर संपूर्ण पुस्तक को पढ़ने जैसा ही आनंद आया. शरत बाबू के साहित्य की विशेषताओं को आपने सही पहचाना है.
पुस्तक पर लिखा लेख आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा सर।