रेटिंग:४ /५
संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक
पृष्ठ संख्या: ११०
प्रकाशक: राजपाल
पहला वाक्य:
महानुभाव ! मैं न तो कोई साधु-सन्यासी हूँ, न कोई महात्मा-धर्मात्मा।
‘एक गधे की आत्मकथा’ सामजिक और राजनितिक अवस्था के ऊपर एक करारा व्यंग है। एक गधा है जो इंसानी जुबान
बोल सकता है। हालात के चलते वो दिल्ली पहुँचता है और उसे एक धोबी के यहाँ
काम करना पड़ता है। बदकिस्मती से यमुना घाट पर उस धोबी को एक मगरमच्छ खा लेता
है, तो उसकी बेवा और यतीम बच्चों के खातिर मदद की गुहार लगाने वो सरकारी
दफ्तर जा कर वहां के अफसरो से मुखातिब होता है। और इसके बाद उसकी ज़िन्दगी क्या रुख लेती है , यही इस पुस्तक का कथानक है।
आज़ादी के ठीक बाद का भारत इस पुस्तक की पृष्ठभूमि है, लेकिन इसमें दर्शायी गयी सारी बातें आज के समाज पर भी बिलकुल सटीक बैठती हैं। कथानक काफी रोचक है और आपको पुस्तक से बांधे रखता है रखता है। इसमें समाज के हरेक हिस्से की तस्वीर को बेहद सच्चाई से दिखाया है , फिर चाहे वो सरकारी कार्यप्रणाली हो ,या पूंजीपतियों की धन लोलुपता या फिर हमारे साहित्यिक ,सांस्कृतिक बुद्धिजीवियों की सोच। पुस्तक को पढ़ते समय आप इस बात को जानते हैं की इसमें बातों को बढ़ा चढ़ा या नमक मिर्च लगाकर नहीं बताया जा रहा है क्यूंकि इसमें कुछ ऐसी घटनाएं भी होंगी जिनको आपने व्यक्तिगत रूप से भी अनुभव किया होगा।
मुझे तो पुस्तक काफी अच्छी लगी और इसने काफी कुछ सोचने पे मुझे मजबूर किया। हम अपने अपने स्तर पर ढंग से काम करें तो काफी हद तक इस सामजिक ढाँचे को बदला सकता है। आप भी इस पुस्तक को पढ़िए और अपने विचार व्यक्त कीजिये।
पुस्तक के कुछ अंश जो मुझे अच्छे लगे और मैं आप लोगों के साथ साझा करना चाहूँगा :
अच्छा, ये बताओ , तुम हिन्दू हो या मुसलमान ? फिर फैसला करेंगे।
धबडू -हुजूर , न मैं हिन्दू हूँ न मुसलमान । मैं तो बस एक गधा हूँ और गधे का कोई मजहब नहीं होता।
मेरे सवाल का ठीक ठीक जवाब दो ।
धबडू- ठीक ही तो कह रहा हूँ । एक मुसलमान या हिन्दू तो गधा हो सकता है , लेकिन एक गधा मुसलमान या हिन्दू नहीं हो सकता।
एक बार चंदिनी चौक से गुजर रहा था कि मैंने एक सुन्दर युवती को देखा , जो तांगे में बैठी पायदान पे पाँव रखे अपनी सुन्दरता के नशे मैं डूबी चली जा रही थी और पायदान पर विज्ञापन चिपका हुआ था, ‘असली शक्तिवर्धक गोली इन्द्रसिंह जलेबी वाले से खरीदिये !’ मैं इस दृश्य के तीखे व्यंग से प्रभावित हुए बिना न रह सका और बीच चांदनी चौक में खड़ा होकर कहकहा लगाने लगा । लोग राह चलते चलते रुक गए और एक गधे को बीच सड़क में कहकहा लगाते देखकर हँसने लगे। वे बेचारे मेरी धृष्ट आवाज़ पर हंस रहे थे और मैं उनकी धृष्ट सभ्यता पर कहकहे लगा रहा था ।
सभ्यता तथा संस्कृति ,नृत्य तथा सौन्दर्य, इन सब बातों से मेरा तथा रामू का जीवन बिलकुल खाली था। मैं तो खेर एक गधा था, लेकिन मैं देख रहा था कि रामू और उसके घरवाले और उसके घर के आस पास रहने वाले लगभग एक सा जीवन, बिलकुल मेरे जैसा जीवन, व्यतीत करते थे ।
रामू की पत्नी ने उसे जोर से एक धप्प जमाई,’घर-भर को भूखा रख कर तमाशा देखता है । ‘
रामू ने कहा, ‘मैं भी तो भूखा रहा हूँ । सच कहता हूँ , पेट की भूख बुरी बला है । लेकिन कभी कभी कोई दूसरी भी ऐसी जाग पड़ती है कि रहा नहीं जाता । क्या हुआ जो धोबी हूँ । आखिर हूँ इंसान ही । पेट की भूख के सिवा और भी भूख लगती है , ऐसी कि मन भीतर ही भीतर भट्ठी की तरह सुलगने लगता है।’
इनमें से कोई तो सीमेंट गर्ल कहलाती थी, जिसने अपने पति को सीमेंट का परमिट लेकर दिया था। कोई आयरन गर्ल , कोई पेपर गर्ल , तो कोई हैवी मशिनिरी गर्ल। एक सेठ ने ताबड़-तोड़ सात विवाह किये थे । केवल इसी बात से पता चलता था कि उस सेठ का धंदा कितना फैला हुआ था।
‘लेकिन लोग क्या कहेंगे? सेठ मनसुखलाल का जमाई एक गधा है । इतने बड़े आदमी का जमाई…”
“मैंने अक्सर बड़े आदमियों के जमाई ऐसे ही देखे हैं । वे जितने गधे हों , उतने ही सफल रहते हैं और बड़े बड़े पदों पर नियुक्त किये जाते हैं । इसलिए नहीं कि वे गधे हैं , बल्कि इसलिए कि वे बड़े आदमीयों के जमाई हैं । किसी बड़े आदमी के जमाई के लिए बुद्धिमान होना जरूरी नहीं । उसकी उन्नति के लिए यह काफी है कि वह एक बड़े आदमी का जमाई है।
मेरी आँखे आश्चर्य से खुली कि खुली रह गई। नए समाज के नियम अब धीरे धीरे मेरी समझ में आ रहे थे।
वास्तव में हम अच्छे विचारक पैदा करना चाहते हैं । हमारी कार्यकारिणी समिति में आपको लेखक कम विचारक अधिक मिलेंगे । हमारे यहाँ ऐसे भी लोग हैं ,जिन्होंने पिछले पांच वर्ष में कोई पुस्तक नहीं लिखी – पिछले पंद्रह वर्ष में कोई पुस्तक नहीं लिखी बल्कि पूरी आयु में कोई पुस्तक नहीं लिखी , लेकिन वे हमारी अकादेमी के प्रमुख मेम्बर हैं । किसलिए? एक लेखक होने के नाते नहीं एक प्रमुख विचारक होने के नाते!उन्होने पढने लिखने के स्थान पर अपनी आयु का अधिकतर भाग सोचने -समझने ,विचार करने,विचार करते करते ऊंघने और ऊंघते ऊंघते सो जाने में व्यतीत किया है।
ऐसे ही रोचक संवादों से भरी हुई है ये पुस्तक। ज़िन्दगी के सही अक्स को दिखाकर उस पर कटाक्ष किया गया है। अगर आप इस पुस्तक को खरीदना चाहते हैं तो निम्न निम्न लिंक्स पे जाके मँगा सकते हैं-