जीवन के शुरुआती दौर में स्कूल की पुस्तकों के अलावा पढ़ने की यात्रा चम्पक, नंदन, पराग जैसी बाल पत्रिकाओं से शुरू होकर, फिर कॉमिक्स, बाल उपन्यासों की दुनिया में विचरण करने लगी थी।
सभी बाल उपन्यास, कॉमिक्स खरीद नहीं पाते थे तो कुछ को किराये में लेकर या आस पड़ोस, दोस्तों से माँग कर, या अपनी वाली का दूसरों के साथ आदान‑प्रदान करके, पढ़ लिया जाता था।
गली मुहल्लों में किराये पर उपन्यास, पत्रिकाएँ, कॉमिक्स भी पढ़ने को मिला करती थी।

किशोरावस्था में बाल जासूसी उपन्यासों के लेखक एस सी बेदी साहब की राजन-इकबाल सीरीज के गुटखा उपन्यासोंं के लिए तो जबरदस्त दीवानापन था।
राजन-इकबाल जैसा बन सकूँ— ख्वाहिशों के संसार में, प्रवेश तो कुछ ऐसी ही चाह से हुआ था।
आगे चलकर वयस्कों के लिए लिखे जाने वाले जासूसी उपन्यासों का दामन थामना भी आरम्भ कर दिया। उनको पढ़ने से समझ यह आता था कि अब हम छोटू, पप्पू नहीं रहे, वाकई बड़े हो गये हैं। कारण यही था कि अपने से बड़ों को इन उपन्यासों को पढ़ते हुए देखते थे, जो दोपहर में सुस्ताते हुए, या रात में खाने के बाद इनके पन्ने पलटते हुए, वहाँ छपे हुए को पढ़ने में खोए रहते थे। घरों की रीत ऐसी थी कि बड़ो के द्वारा, छोटों को, सामान्यतः इन उपन्यासों के मायाजाल से दूर रखा जाता था।
चम्पक, नंदन, पराग जैसी बच्चों वाली पत्रिकाओं के अलावा, बड़ों वाली में महिलाओं की पत्रिकाओं जैसे कि सरिता इत्यादि में श्रीमती जैसे कार्टून स्ट्रिप को पढ़ लें इससे ज़्यादा बच्चों को, बड़ों के द्वारा छूट, इस मामले में नहीं मिलती थी।
कभी सफर में जाना पड़े तो बड़ों के द्वारा बच्चों के लिए कॉमिक्स या उनकी बाल पत्रिकाएँ, और अपने लिए माया, इंडिया टुडे या कोई जासूसी उपन्यास खरीद कर पढ़ना शुरू कर देना एम आम बात थी।
माहौल, बाज़ार ऐसा था कि छोटों की कॉमिक्स, उपन्यास और बड़ों के उपन्यास सभी खूब धड़ल्ले से बिका करते थे।
उम्र कुछ और आगे खिसकी तो हम बच्चा पार्टी से लड़कपन में शामिल होने वाले, कर्नल रंजीत, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक जैसों के लिखे को, पढ़ने के लिए हाथों से सम्हालने लगे।
इनको पढ़ने के समय खाने-पीने का ध्यान नहीं होता, और अक्सर ये उपन्यास परिवार के वरिष्ठों की नजर से बचकर पढ़ें जाते थे। कई बार पकड़ लिए जाने पर बड़ों की डाँट भी खानी पड़ती थी, फिर भी इनका पढ़ना छुप छुपाकर किसी तरह जारी ही रखा जाता था।
बिजली के चले जाने पर मोमबत्ती की रोशनी में भी इनको पढ़ना जारी रखा जाता था।
उम्र के उस दौर में समकालीन फिल्मों के हीरो के साथ-साथ, उन जासूसी उपन्यासों के नायक भी, हमारे आदर्श हुआ करते थे। उनकी तरह, उनके जैसा ही जीवन में बनने की चाह, पूरी गम्भीरता के साथ स्वंय के भीतर पलने, मचलने, अंगड़ाई भी लेने लग जाती थी।
लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक के रचे गये एक किरदार, ब्लास्ट के रिपोर्टर सुनील कुमार चक्रवर्ती के, जैसे बनने की इच्छा दिल में विद्यमान थी।
चाहत सिर्फ वैसे सुनील के जैसे बनने तक ही सीमित नहीं थी। सुनील के दोस्त रमाकांत मल्होत्रा की तरह ही, एक दोस्त, जीवन में पाना भी चाहते थे।
इच्छाओं की सूची इस पर ही खत्म नहीं हो जाती थी, सुनील और रमाकांत की तरह यूथ क्लब जैसी जगह में अपनी शामों को गुजारना चाहता था।
जासूसी के अलावा सामाजिक उपन्यासों की भी धूम रहती थी। पुरुष पाठकों के साथ गृहिणियाँ भी इन्हें खूब पढ़ा करती थी। गृह लक्ष्मी ने दोपहर का खाना बनाया, दूसरों को खिलाया, खुद भी खाया, फिर बिस्तर पर लेट कर, उपन्यास के पन्नों से गुज़रना शुरू। राजहंस, रानू, मनोज जैसे नाम गृहणियों के फेवरेट हुआ करते थे। अक्सर उन्हें पढ़ते, पढ़ते ही रो रो कर, पढ़ें जा रहे पन्नों को, पाठिकाएँ भिगो कर रख दिया करती थी।
कभी मेरठ होता था लोकप्रिय साहित्य लेखन का गढ़
दिल्ली के पास, यू.पी. का मेरठ, कभी जासूसी, सामाजिक उपन्यासों छापने का सबसे बड़ा केंद्र हुआ करता था। यहाँ जासूसी, सामाजिक उपन्यासों के प्रकाशन में एक जैन परिवार के रिश्तेदारों का दबदबा था।
दिल्ली से मेरठ, मेरठ से दिल्ली आने-जाने वाली बसों, ट्रेन में उदीयमान, नये, पुराने लेखकों की भी, अन्य यात्रियों के साथ भागीदारी रहती थी। मेरठ जा रही बस, ट्रेन में बैठी हुई लेखक प्रजाति सोचा करती थी, ‘इस बार पब्लिशर से पूरी पेमेंट लेकर ही लौटूँगा।’
कुछ सोचा करते थे इस बार प्रकाशक छाप रहा है, ये गुड न्यूज मिल ही जाएगी। यदि ऐसा नहीं हुआ, यदि पैसे ठीक मिलेंगे तो किसी छद्म नाम से या किसी राइटर के ब्रांड नेम से भी, मेरे लिखे को छापेगा, तो मैं इंकार नहीं करूँगा।
ऐसा सोचने से ही उन लेखकों के चेहरे पर मुस्कान बिखरने लगती थी। हर कोई गुलशन नंदा जैसा नाम, दाम पाने की ख्वाहिश रखता था, और इस ख्वाब के पूरा हो जाने पर बड़ा आशान्वित भी रहता था।
‘झील के उस पार’ (गुलशन नंदा जी का लिखा उपन्यास) का विज्ञापन तो धर्मयुग जैसी उस काल की पारिवारिक, लोकप्रिय, सम्मानित पत्रिका में छपा था।
एक और नामचीन लेखक जनप्रिय ओम प्रकाश शर्मा जी के यहाँ तो मेरठ में उनके घर में लेखकों का जमावड़ा जमता था।
जहाँ नये पुराने लिखने वाले शामों, रातों को गुलजार किये रहते थे।
जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा जी उन लेखकों के लिए शिखर पुरुष जैसे थे।
प्रकाशकों के पास दबाव रहता था हर महिने एक बढ़िया सेट, जासूसी, सामाजिक, बच्चों के वाला भी, निकालना है।
ये उद्योग जैसा सा बन चुका था, जहाँ अच्छा खासा मुनाफा भी प्रकाशक बिना किसी भारी निवेश के अपनी जेब के हवाले कर देता था।
प्रसिद्ध लेखकों की नकल तक भी बिक जाया करती थी, बाज़ार इतना बड़ा हो चुका था।
कुछ खूब बिकने वाले लेखकों को अपने पाठकों को आगाह भी करना पड़ता था कि मेरे नाम से मिल रहे नकली उपन्यासों से सावधान रहा कीजिए। जिस किताब में बैक कवर में मेरी शाल ओढ़ी हुई तस्वीर होगी, वो ही मेरे लिखे हुए उपन्यास समझे जाने चाहिए।
जासूसी उपन्यास लिखने वाले कई लेखकों की आमदनी, नाम देखकर साहित्य श्रेणी वाले लेखक कुढ़ा भी करते थे। एक किस्सा बड़ा फेमस हुआ था कि एक पान की गुमटी पर कोई लुगदी लेखक बड़ी अकड़ के साथ क्यूबा से आयतित महंगा सिगार खरीद रहा था, वहीं फटेहाल अवस्था में उनके बगल में खड़े होकर एक साहित्यिक लेखक द्वारा पान वाले से उधार में बीड़ी का बंडल देने के लिए गिड़गिड़ा रहा था।
बहुप्रतीक्षित उपन्यासों की शीघ्र प्रकाशित होने की होर्डिंग भी शहर के मुख्य चौराहों में लग जाया करती थी। ‘वर्दी वाला गुंडा’ उपन्यास तो स्टॉलों के साथ-साथ शहर के मुख्य चौराहों में लगी होर्डिंग में नज़र आया था।
लेखक को प्रकाशक से ढेरों शिकायतें थीं, प्रकाशक को लेखकों से, लेकिन धंधे में आमदनी थी, और वो भी मोटी वाली, तो दोनों के बीच, अनबन रहने के बावजूद लेखक, प्रकाशक का नाता बना ही रहता था। कितने लड़ाई, झगड़े के बाद भी धागा कमजोर तो पड़ता था, हिचकोले खाता रहता था, लेकिन टूटता नहीं था।
बाज़ार सुव्यवस्थित नहीं था, किंतु व्यवसाय में मुनाफा अच्छा खासा था।
पहला प्रहार जासूसी उपन्यासों के संसार पर
सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था कि पहली मक्खी यूँ आ गिरी कि दूरदर्शन पर सीरियल प्रसारित होने लगे, पहले रात को फिर दिन में भी। (शांति, स्वाभिमान), सैटेलाइट टीवी के सीरियल (एकता कपूर के सीरीयल के सास, बहू, ननदों के लड़ाई, झगड़े, षडयंत्र) इनमें खूब सारी शादियाँ करने वाले पात्र।
अब समय बिताने के लिए पढ़ना ही, लोगों की मजबूरी नहीं रह गयी थी। शुरुआत में टीवी ने, वीडियो लाइब्रेरियो ने यहाँ कुछ सेंध लगायी। टीवी भी 24 घंटों वाला हो, और बहुत सारे चैनलों वाला हो गया किंतु इंटरनैट, और नैट के द्वारा फोन पर फिल्मों, सीरीयलों की उपलब्धता ने, कागज़ों पर लिखे को पढ़ने की प्रवृति को ध्वस्त सा ही कर दिया।
इसके बाद ओटीटी ने तो सब कुछ यहाँ, तुरंत ही खत्म सा कर डाला, ताबूत में आखिरी कील ठोक डाली।
नतीजा नये लोगों के लाइफ स्टाइल में पढ़ना दूर दूर तक शामिल नहीं रहता।
अब लोग चैट तो पढ़ सकते हैं, किताब के पन्नों पर लिखा हुआ नही।
किताब पढ़ने पर दिमाग पर पड़ने वाले ज़ोर से बचना चाहते हैं, सबको जिंदगी में करना आसान जैसा ही चाहिए। आसानी से ग्रहण किए जाने वाला लोगों की बहुत बड़ी ज़रूरत बनती जा रही है। पुराने जासूसी, सामाजिक उपन्यासों के दीवानों ने, उपन्यासों को पढ़ना खत्म कर दिया। वेब सीरीज जैसे माध्यमों को उन लोगों ने अपना समय देना शुरू कर दिया है।
यहाँ बोलते, दिखाई देने वाले पात्र, साथ में बैकग्राउंड संगीत, फिर नंगेपन वाली गंदगी देख, सुन पाने का आनंद, इस सबने, पुस्तक पढ़ने को तो, पाताल लोक का वासी सा बना कर रख दिया।
उपन्यासों की डिमांड पहले कम, फिर खत्म होने तक पहुँचने लगी
हिंदी में तो अब जासूसी, सामाजिक उपन्यास छापने वाले प्रकाशक रह ही नहीं गये हैं। अब मेरठ में जैन परिवार की नयी पीढ़ी का दूर-दूर तक भी प्रकाशन से कोई वास्ता नहीं रह गया है।
दिल्ली में राजा पॉकेट बुक्स के राजकुमार गुप्ता जी के निधन के साथ ही आखिरी प्रकाशन, जासूसी उपन्यासों को छापने वाला सहारा भी बंद हो गया।
किराये पर किताब देने वाली मुहल्ले की दुकानों के साथ-साथ, किताब बेचने वाली दुकानें भी बंद हो गयी है।
सफर के दौरान पुस्तकें खरीदना पढ़ने का दौर खत्म हो गया
काफी सारे जासूसी उपन्यास रेलवे स्टेशन या बस स्टेशन पर मौजूद किताबों की दुकान के द्वारा बिकते थे। फिर मोबाइल हर एक हाथ में पहुँच गया, सफर के दौरान टाइम पास करने के लिए पन्ने पलटना जरुरी नहीं रहा, बस मोबाइल की स्क्रीन पर अंगूठे को स्क्रॉल करते रहना है। कई बार तो यात्री ऐसी दुनिया में खो जाता है कि अपने उतरने वाले स्टेशन से भी कई स्टेशन आगे पहुँच जाता है।
अब सफर करने वाले को बिस्लेरी, चिप्स, कोल्ड ड्रिंक्स, सोडा ही स्टेशन में स्थित दुकानों से चाहिए, किताबें नहीं चाहिए। दुकानदार लोग भी किताबों के बदले, अपनी दुकानों को उन चीज़ों से ही भरने लगे, जिसे काउंटर के दूसरी तरफ खड़ा, खरीदने के लिए खड़ा हो जाता था, जहाँ उपन्यास गायब हो चुके थे।
दुकानदारों ने भी आखिरकार धंधा ही करना है, बेचेंगे वहीं, जो बिक सके।
अब तो प्रकाशक गंदी किताब बेचकर भी सर्वाइव नहीं कर सकता, वो सब अब वेब सीरीज वालों ने नेट के द्वारा बोलती चलती फिरती तस्वीरों के साथ बढ़िया तरीके से, उसे हमेशा साथ रहने वाले मोबाइल पर, लोगों को उपलब्ध जो करा दिया है। अंतर ऐसा आया कि छुप, छुपकर पढ़ा जाने वाला अब फेमिली में साथ मिलकर देख देख कर, एंजाय किया जा रहा है।
इस बीच कुछ नये प्रकाशन सामने आये, लेकिन शुरुआती जोश खरोश, साहित्य की सेवा करने के बड़े बड़े दावों के बाद, वो लोग भी दूसरे प्रकाशनों की थोक के भाव में अनबिकी किताबें खरीदकर, उन्हें ही अपनी छापी हुई किताबों के साथ बेचने को मजबूर हो गये हैं। ये समझ लीजिए किसी तरह, गाड़ी को रिक्शा बनाकर ही, उसे खींचे,चलाए जा रहे हैं। प्रकाशक से कहीं ज़्यादा, वो लोग डिस्ट्रीब्यूटर कहे जाने चाहिए। अब खर्चे तो उनको भी निकालने ही हैं, कब तक बेचारे अपनी जेब से पैसे निकाल कर धंधे को सपोर्ट करते रहेंगे, तो प्रकाशक के चोला ओढ़कर डिस्ट्रीब्यूटर भी बनना पड़े तो ज़्यादा दिक्कत वाली बात कैसी।
किताबें ऑनलाइन ही थोड़ी बहुत बिकनी लगी हैं
अब तकनीक के चलते चार किताबें भी आसानी से छापी जा सकती हैं, तो कुछ, या थोड़े ही छपने वाले लेखकों की बाढ़ से आ रखी है। सेल्फ फाइनेंसिंग के द्वारा ही ज़्यादा पुस्तके छापी जाने लगी हैं, इसके चलते काफी सारे अपने आप को लेखक कहलाने का सुख पाने लगे हैं।
कुछ तो अपने नाम के आगे आथर (author) भी लगाना शुरु कर देते हैं। अपने लिखे को वो दोस्तों, कुछ रिश्तेदारों को ही खरीदने को कहते भी रहते हैं। कुछ उपनाम भी रख लेते या लेती हैं, लेकिन उनकी किताबों का बिकना वहीं डाक के तीन पात जैसा रहता है
उन्हें लिखने से कहीं ज़्यादा मेहनत तो सोशल मीडिया पर अपना असर जमाने, अपने लिखे का प्रचार करने में करनी पड़ती है।
फेसबुक में खूब हल्ला मचाये रहते हैं कि मैंने किताब लिख डाली है, उसकी किताब खूब बिके, इसलिए वो लोगों के बर्थडे, मेरिज एनीवर्सरी पर बधाईयाँ खूब ध्यान रखकर देता रहता है। इस मेहनत, रणनीति के चलते उसे लाइक, बधाइयाँ तो मिल जाती हैं, लेकिन किताब खरीदने वाले कम ही मिल पाते हैं। किताबों का बिकना वहीं ढाक के तीन पात जैसा ही रहता है।
यदि लिखने वाली महिला है तो उसकी फोटोज देखकर, कुछ स्त्री प्रेमी लोग उनकी किताबें खरीद भी लेते हैं, कुछ प्रशंसा की बाढ़ में डूबी समीक्षाएँ भी उन महिलाओं की किताबों पर लिख डालते हैं।
बस इससे ज़्यादा उन सुंदरियों को भी, नहीं मिल पाता।
यहाँ लिखने वाले लोग साहित्य की सेवा की बातें भी करते हैं, लेकिन उनको सैलिब्रिटी बनना है। बस किसी वेब सीरीज लिखने का मौका मिल जाए, तो बस उनको अपनी अंतिम मंजिल मिल गयी। लिखना उनका ध्येय नहीं, लिखना एक सीढ़ी है, जिससे वो पैसा और ग्लैमर के यशभागी बन सकें।
लगता तो ऐसा है कि अब एक और विधा का, दिनचर्या वाली आदत (पढ़ने) का समापन हो जाना है।
लिखना तो जारी रहेगा, लॉ ऑफ एवरेजेस की तरह कोई न कोई कभी कुछ ऊँचाइयाँ हासिल करता हुआ दिखाई देगा, लेकिन इसको ज़िंदा रहना नहीं कहा, समझा जाना चाहिए। एक सम्भावना यहाँ और भी है कि तीसरे विश्वयुद्ध में दुनिया समाप्त हो जाती है, फिर से मानव सभ्यता के विकास की प्रक्रिया शुरु हो जाती है। गुफा की दीवारों, फिर पत्तों पर लिखने के साथ लाखों सालो के बाद फिर से काग़ज़ पर लिखने का दौर भी आएगा। इंटरनेट के फिर से अविष्कार होने तक ये सिलसिला (जासूसी,सामाजिक उपन्यासों के छपने का ) खूब चलता रहेगा।

बढ़िया लेख।
लेख आपको पसंद आया ये जानकर अच्छा लगा। हार्दिक आभार।