तहकीकात 2: सीढ़ियाँ और जहर – अहमद यार खाँ | इश्तियाक खाँ

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 26 | प्रकाशन: नीलम जासूस कार्यालय | अंक: तहकीकात 2

पुस्तक लिंक: अमेज़न

तहकीकात 2: सीढ़ियाँ और जहर - अहमद यार खाँ | इश्तियाक खाँ

कहानी 

शहर के दो हिस्सों में उन दिनों दो पतियों की मौत हुई थी। 

एक पति तीस वर्षीय जवान था जिसने ठेकेदारी में काफी माल पीटा था और अचानक से तीन दिन की बीमारी के बाद गुजर गया था।

मृतक के घर वालों का सोचना था कि मृतक के साथ कोई साजिश रची गई थी।

वहीं मरने वाला दूसरा व्यक्ति एक पचपन वर्षीय रिटायर्ड फौजी था जिसकी मौत सीढ़ियों पर से  गिरने से हुई थी। सभी इसे दुर्घटना मानते थे लेकिन मृतक के भाई को लगता था कि उसके भाई का कत्ल हुआ था। 

क्या यह दोनों मृत्यु सामान्य थीं या इनमें कोई राज छिपा था?

अगर कोई राज था तो वह क्या राज था?

मेरे विचार

‘सीढ़ियाँ और जहर’ तहकीकात पत्रिका के दूसरे अंक में प्रकाशित सत्यकथा (ट्रू क्राइम) है। सत्यकथा अहमद यार खाँ द्वारा मूलतः उर्दू में लिखी गई है और इसका हिंदी में अनुवाद इश्तियाक खाँ द्वारा किया गया है। अनुवाद अच्छा बन पड़ा है।

‘सीढियाँ और जहर’ में अहमद यार खाँ अपने पुलिसिया जीवन में सुलझाए गए दो मृत्यु के मामले के विषय में बता रहे हैं। यह एक तीस वर्षीय ठेकेदार अबरार और एक पचपन वर्षीय रिटायर्ड कर्नल आबदार के मृत्यु के मामले थे। यह दो व्यक्ति शहर के दो कोनों में रहते थे और इनकी मृत्यु आगे पीछे ही हुई थी। दोनों ही मामलों में इनके परिवार वालों को शक था कि इनकी हत्या हुई थी जिसमें इनकी पत्नियों का हाथ हो सकता था। पर क्या ऐसा असल में था? क्या ये हत्याएँ थीं या महज दुर्घटनाएँ? कथावाचक ने कैसे इनकी मृत्यु का मामला सुलझाया और इस तहकीकात का क्या अंत हुआ ये इस सत्य कथा का कथानक बनता है। 

कहानी प्रथम पुरुष में बताई गई है। अगर आप जासूसी कथाओं के शौकीन हैं तो काल्पनिक कथाओं की तुलना में ये कथा आपको थोड़ा सीधी सादी महसूस हो सकती है। चूँकि अपराधी पेशेवर नहीं थे तो कथानक में इतने घुमाव नहीं रहते हैं और मामूली तहकीकात से सबूत मिल जाते हैं। लेकिन एक पुलिसिया तहकीकात किस तरह कार्य करती है यह इस सत्यकथा से जाना जा सकता है। कई बार एक से अधिक मामले पुलिस वालों को देखने होते हैं और इसके लिए कैसी भागदौड़ होती है यह भी इधर दिखता है। वहीं डरा धमकाकर, फुसलाकर और झूठ बोलकर कैसे वो बात की तह तक जाने की कोशिश करते हैं ये भी इधर दिखता है। यह दर्शाता है एक अच्छे पुलिस वाले को व्यक्ति के मनोविज्ञान का ज्ञाता भी होना चाहिए ताकि वो समझ सके कि किस्से कैसे काम लेना है। वहीं किस तरह कई बार तहकीकात करने वाले अफसर को ऐसे प्रलोभन दिए जाते हैं जिसे मना करना मुश्किल होता है ये भी इधर दिखता है। 

इसके अतिरिक्त कथावाचक पुलिसिया कार्यवाही और समाज के बारे में बीच बीच में टिप्पणी करते हैं जिन्हें पढ़ना रोचक रहता है। ये उस वक्त के लोगों के व्यवहार, उस वक्त औरतों की स्थिति और उस वक्त के समाज को दर्शाने का कार्य करते हैं। पुलिस के कार्य की अपनी शब्दावली है जिसका जब प्रयोग होता है उसका अर्थ भी लेखक द्वारा दिया रहता है।  उदाहरण के लिए:

अंग्रेज दफ्तरी कार्यवाहियों के चक्कर में नहीं पड़ा करते थे। हत्या की घटना हो जाए तो अंग्रेज अफसर हमारी जान खा जाते थे। ऐसा बिल्कुल नहीं होता था कि पुलिस मृतक और हत्यारे के संबंधियों के इंतजार में बैठ जाए और जिधर से ‘चाय-पानी’ ज्यादा मिले तफ्तीश उधर को झुका दी जाए। हमें तो असली अपराधी जमीन के अंदर से निकालकर कानून के सामने खड़े करने पड़ते थे और अगर इस्तगासा कमजोर हो तो पुलिस की खैर नहीं। (पृष्ठ 13)

हम हिंदू और मुसलमान में यह अंतर देखा करते थे कि हिंदू के पास जायज नाजायज दौलत आती थी तो वह साफ-सुधरे कपड़े पहनने छोड़ देते थे ताकि किसी को शक ना हो कि इसके पेट में खजाना है। वह इस खजाने को कारोबार फैलाने में लगाकर और दौलत कमाता था। इसके विपरीत मुसलमान के हाथ रुपया-पैसा आता था तो वह उनका प्रदर्शन करता था। नई नवेली दुल्हन लाता था, कोठी बनाता था और शराब पीता ठ्। मुसलमानों की इस आदत की वजह से दुश्चरित्रता आम हो गई थी। बूढ़े पतियों की नौजवान पत्नियाँ मनमानी करती और गुल खिलाती थी । कभी किसी की पत्नी किसी के साथ भाग जाती थी। सिविल कोर्ट में घरेलू झगड़ों की भरमार थी। (पृष्ठ 15-16)

मैंने उसे सर से पाँव तक देखा। हम पुलिस वाले तजुर्बे के आधार पर चेहरे के हावभाव और बात करने के तरीके से पहचान लिया करते हैं कि इंसान में अपराध करने की क्षमता या हिम्मत है भी या नहीं जिसका आरोप उस पर लगाया गया है। (पृष्ठ 17)

हत्या एक ऐसा अपराध है जिसे पेशेवर अपराधी भी कभी नहीं छुपा सकते। यह अलग बात है कि हम अदालत में उसए हत्यारा साबित कर सकते हैं या नहीं। (पृष्ठ 17)

मैंने दो मुशीरों को साथ लिया। किसी वस्तु की बरामदगी की गवाही देने के लिए ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता होती है जिनका पुलिस और आरोपी से कोई संबंध न हो। उन्हें मुशीर कहा जाता है जो बरामदगी के कागज पर हस्ताक्षर करते हैं  और उस कागज को मुशीरनामा  कहते हैं। (पृष्ठ 26)

अंत में यही कहूँगा कि तहकीकात के दूसरे अंक में प्रकाशित यह रचना रोचक है और सत्यकथाओं के शौकीनों को ये पसंद आएगी। अनुवाद अच्छा हुआ है। अगर आप किसी घुमावदार टेढ़े कथानक की अपेक्षा लिए इसे पढ़ेंगे तो निराश होंगे लेकिन अगर आपकी रुचि पुलिस प्रोसीजर यानी पुलिस के कार्य करने के तरीके में है तो असल अपराध की ये कथा आपका मनोरंजन करेगी। 

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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