पुस्तक टिप्पणी: मिशन ग्रीनवार – समीर गांगुली

पुस्तक टिप्पणी: मिशन ग्रीनवार - समीर गांगुली | टिप्पणीकार: दिविक रमेश

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: पेपरबैक | प्रकाशक: पब्लिकेशन डिवीजन | पृष्ठ संख्या: 54

पुस्तक लिंक: पब्लिकेशन डिवीज़न

समीर गांगुली की बाल-साहित्य लेखन में कुशल सक्रियता मुझे इसलिए भी स्वागत के योग्य लगती है और पसंद है कि उनकी लेखनी से विशेष रूप से बाल-कथा (उपन्यास) के क्षेत्र में एक के बाद एक श्रेष्ठ कृतियाँ सामने आ रही हैं।

इस समय मेरे सामने 2022 में प्रकाशन विभाग, भारत सरकार के द्वारा प्रकाशित उनका बाल उपन्यास ‘मिशन ग्रीन वॉर’ है। पहली बार मैंने उनका उपन्यास ‘रंगीली,बुलेट और वीर’ पढ़ा था जिसके केंद्र में स्मार्ट गाँव के संकल्पना है। मैं अभिभूत हुआ था। मैंने लिखा था—

हिंदी के बाल-साहित्य में उत्कृष्ट बाल उपन्यासों की अपेक्षित संख्या नहीं है। ऐसे अच्छे उपन्यासों की तो और भी कमी है जिनका कथानक तथ्यात्मक जानकारी आधारित हो लेकिन जो उपन्यास की विधा में जानकारी प्रस्तुत करने के लिए माध्यम मात्र न होकर हर हाल में ‘उपन्यास’ हों।


मुझे खुशी है कि किशोरों के लिए वैज्ञानिक संकल्पना के रूप में कृषि केंद्रित यह बाल उपन्यास ‘मिशन ग्रीन वॉर’ भी उपर्युक्त कसौटी पर खरा उतरता है। कथा को 13 भागों में विभाजित किया गया है। शैली में रोमांच और खोजीपना है। जिज्ञासा प्रश्नाकुलता और रहस्यमयता का भरपूर पुट है। जानकारी और तत्थात्मकता को कहीं बोझिल नहीं होने दिया है। कथारस की रचनात्मकता को इस अंश में पहचाना जा सकता है—

अभी वे पाँच मिनट भी नहीं बोले थे कि मोहन ने दोबारा हाथ खड़ा कर दिया।
शास्त्री सर मुस्कुराकर बोले, “अब क्या?”
मोहन, “सर, क्या हम एक ही पौधे में हल्दी और अदरक दोनों फसलें उगा सकते हैं?”

कहानी एक कृषि कॉलेज की है। जो कि उत्सुकता जगाती एक रहस्यात्मक जिज्ञासा से शुरु होती है— ज़ुबिन कहाँ गया।

नरेश कृषि कॉलेज से हॉस्टल की ओर जा रहा होता है। तभी उसने महसूस किया कि कोई आदमी उसका पीछा कर रहा है। पीछा करने वाला लोकल सी.आई.डी. से था और नरेश के सहपाठी ज़ुबिन के बारे में जानना चाहता है। नरेश जो जानता था पहले ही पुलिस को बता चुका होता है। ज़ुबिन को वह अपनी धुन में रहने वाला लड़का मानता था। कृषि और पशु विज्ञान की कक्षा में वह अजीब-अजीब सवाल करता था जो अध्यापकों को कभी पसंद आते और कभी नहीं। हर बात को ज़ुबिन गहराई से समझना चाहता था। मसलन सेब के बाग नरेश के थे लेकिन सेब की खेती के बारे में दुनिया भर का ज्ञान ज़ुबिन के पास था। फसलों को ज्यादा फायदेमंद बनाने के लिए उसके पास ढेरों आइडिया होते थे। ज़ुबिन को जाग-जाग कर सपने देखने की आदत थी।

कृषि कॉलेज में शास्त्री सर भी हैं जिनकी बायो टेक्नॉलॉजी की कक्षा सबसे अलग होती थी। ज़ुबिन उनका प्रिय छात्र था इसलिए उसके गायब हो जाने से वे बहुत दु:खी थे।

ज़ुबिन कहाँ गया? नरेश ने ज़ुबिन ढूँढने को क्या किया और किस तरह से नरेश ज़ुबिन से मिला ये कहानी में आगे पता चलता है। आखिर में ‘मिशन ग्रीन वॉर’ शीर्षक वाले अध्याय में पूरी कहानी का मूल उद्देश्य स्पष्ट होता है, जो है — दुनिया को सुखी देखने के लिए खेती की सुरक्षा, खेती का विस्तार और खेती में अनुसंधान की दिशा में युद्ध स्तरीय काम। इस दिशा में हो रहे अनुसंधानों (जैसे बिना मिट्टी की खेती, खड़े मैदान और उनमें उगी फसलें आदि) की साझा की गयी दिलचस्प जानकारी भी मिलती है।

कथानक में बहुत सा मज़ेदार बालसुलभ चौंकाने वाला लेकिन विश्वसनीय मसाला पाठक को बाँधे रखता है, तथ्यात्मक विवरण, वैज्ञानिक जानकारी को शुष्क होने से भी बचाता है और रचनात्मकता अर्थात कहानीपन से वंचित भी नहीं होने देता।

कॉलिज के प्रिंसिपल खंडूरी को विद्यार्थियों ने टाइगर नाम दे रखा था जिसकी जानकारी प्रिंसिपल को थी और इसीलिए वे भी सभी विद्यार्थियों को छोटा टाइगर के नाम से पुकारते थे।

कहानी में एक ऐसी दुबली-पतली लड़की अध्यापक भी है जिसने अपना परिचय इस प्रकार दिया, “हलो फ्रेंडस मेरा नाम है गौरी जोशी, और मैं आज आप लोगों को घास चराने वाली हूँ।” असल में वह मज़ाकिया स्वभाव की थी।

पशुशाला के डॉ. सिंह सर भी कम मज़ेदार नहीं हैं। कथारस टपकाता और हँसता-हँसाता ज़रा यह अंश देखा जाए—

सिंह सर ने एक दिन क्लास में पूछा, “अक्ल बड़ी कि भैंस?”
जाहिर था, सभी कहते अकल। सबने यही कहा। लेकिन सिंह सर बोले, “गलत!”
सबने एक साथ पूछा, “कैसे?”
सिंह सर बोले, “वो ऐसे कि भैंस के पास थोड़ी बहुत अक्ल तो होती है, मगर अक्ल के पास कोई भैंस नहीं होती।”

यहाँ पशुलोक में पहुँचने की कल्पना भी की जाती है और विज्ञान की समझ यूँ भी दोस्ताना ढंग से पिरोयी जाती है—

सबसे पहले नरेश ने अपनी राय दी, “सर, मैं चाहता हूँ मुर्गी ऐसे अंडे दे जिसमें खराब कोलेस्ट्रॉल कम हो।”

सिंह सर मुस्कुराकर बोले, “सोच बहुत अच्छी है मगर अच्छे और बुरे कॉलेस्ट्रॉल का अधिकांश भाग यकृत बनाता है और शेष में बाहरी तत्व योगदान देते हैं। इसलिए दोस्त, कॉलेस्ट्रॉल घटाने के लिए हेल्दी लाइफस्टाइल को अपनाना ही सबसे उपयोगी होगा।”


और भी कितने ही प्रसंग हैं जिनमें बच्चों की सक्रिय भागीदारी है, उनको अपने-अपने मत प्रकट करने की छूट है और तब तथ्यात्मक या तर्क सम्मत अध्यापकीय समाधान हैं।

कुल मिलाकर वैज्ञानिक जानकारी को साझा शैली में देता हुआ यह किशोर उपन्यास एक ओर अपनी भाषा-शैली में बहुत ही सहज-सरल और सुलझा हुआ है तो दूसरी ओर रहस्य-रोमांच की पठनीयता बढ़ाते कथाशिल्प से समृद्ध है। उत्सुकताओं को बेहतरीन ढंग से बुना गया है।

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टिप्पणीकार परिचय
दिविक रमेश

दिविक रमेश महशूर कवि, बाल साहित्यकार और अनुवादक हैं। 6 फरवरी 1946 (वास्तविक: 28 अगस्त 1946) में दिल्ली के किराड़ी गाँव में जन्में दिविक रमेश का मूल नाम रमेश चंद शर्मा है। उनकी शिक्षा दीक्षा दिल्ली में हुई। दिल्ली विश्विद्यालय से पीएचडी करने के पश्चात वह अध्यापन से जुड़ गये। मोतीलाल नेहरू कॉलेज दिल्ली के प्राध्यापक पद तक वह पहुँचे।

उन्होंने दक्षिण कोरिया में भी अथिति आचार्य के तौर पर कार्य किया। उन्होंने कविता, काव्य-नाटक, आलोचना, बाल साहित्य, संस्मरण जैसी विधाओं में रचनाएँ की हैं। कई रचनाओं का हिंदी में अनुवाद भी उन्होंने किया है।

कुछ प्रमुख कृतियाँ
रास्ते के बीच (1977), खुली आँखों में आकाश (1983), हल्दी चावल और अन्य कविताएँ (1992), छोटा सा हस्तक्षेप(2000), फूल तब भी खिला होता (2004), खण्ड-खण्ड अग्नि (काव्य-नाटक)(1994)। बाल कविताएँ : एक सौ एक बाल कविताएँ (2008), गेहूँ घर आया है (अशोक वजपेयी द्वारा चुनी हुई कविताएँ)(2008)

अनुवाद: कोरियाई कविता-यात्रा (साहित्य अकादमी, 1999),सुनो अफ़्रीका (साहित्य अकादमी, 2005), कोरियाई लोककथाएँ (पीताम्बर, 2000), कोरियाई बाल कविताएँ (नेशनल बुक ट्रस्ट, 2004)। कुछ अनुवाद रूसी आदि भाषाओं के साहित्य से) । सम्पादन: कविता ऒर कहानी की अनेक पुस्तकें ।अनुवाद के लिए द्विवागीश पुरस्कार (2008)

पुरस्कार: ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’, साहित्य अकादमी पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर पुरस्कार इत्यादि


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