- मूल्यों के बिना हम जी नहीं सकते : राजीव भार्गव
- ‘सवाल’ आज का सबसे जरूरी शब्द है : गोपालकृष्ण गांधी
- असहमत होने पर अलग विचार वालों से संवाद का चलन अब नहीं रहा : अभिषेक श्रीवास्तव
- आज हमारा लोकतंत्र बहुत बीमार है : रूपरेखा वर्मा
04 अक्टूबर, 2024 (शुक्रवार)
नई दिल्ली. हम आजकल इतनी जल्दी में है कि तुरन्त सब कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं। इस जल्दबाजी में हम अपने मूल्यों और नैतिकता को भुला रहे हैं। हमारी सभ्यता की हजारों वर्षों की यात्रा से हमने जिन मूल्यों को हासिल किया है, वे आज खंडित हो रहे हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मूल्यों के बिना हम जी नहीं सकते। आज हम अपने में ही इतने सिमट रहे हैं कि विपरीत विचारों वाले व्यक्ति से बात तक नहीं करना चाहते। इस तरह के एक बँटे हुए समाज में नीति और नैतिकता के परिप्रेक्ष्य में, हमारा रोजमर्रा का व्यवहार और विचार क्या हो, इस पर राजीव भार्गव ने अपनी किताब में बहुत शिद्दत से बात की है। इस किताब में हमारे समय के बहुत जरूरी सवालों को उठाया गया है। यह किताब हिन्दुस्तान के ईमान के बारे में है, उसकी आत्मा के बारे में है। ये बातें राजनीतिक सिद्धान्तकार प्रोफ़ेसर राजीव भार्गव की किताब ‘राष्ट्र और नैतिकता : नए भारत से उठते 100 सवाल’ के लोकार्पण कार्यक्रम में वक्ताओं ने कही।
राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस किताब का लोकार्पण गुरुवार शाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हुआ। कार्यक्रम मेें लेखक-राजनयिक गोपालकृष्ण गाँधी, विचारक और सामाजिक कार्यकर्ता रूपरेखा वर्मा, इतिहासकार एस. इरफ़ान हबीब, सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता संजय हेगड़े, लेखक राजीव भार्गव और अनुवादक अभिषेक श्रीवास्तव बतौर वक्ता मौजूद रहे।
इस मौके पर गोपालकृष्ण गांधी ने कहा, ‘सवाल’ आज का सबसे जरूरी शब्द है। जवाब जरूरी नहीं, पर सवाल उठाना जरूरी है। यह किताब सवालों पर ही टिकी हुई है। जीना है या मरना है, तय करना है। इस किताब का सवाल यही है। हमें यह पहचान करने की जरूरत है कि किन-किन चीजों में आज सांस नहीं है। आज के समय में ‘ईमान’ बहुत खतरे में है। हमें यह भी तय करना है कि ईमान को बचाना है कि नहीं। यह किताब हिन्दुस्तान के ईमान के बारे में है, उसकी आत्मा के बारे में है। यह किताब एक ऐसे व्यक्ति की कलम से निकली है जो एक बुद्धिजीवी है विचारक है और नागरिकता पर विश्वास रखने वाला हिन्दुस्तानी है। यदि आज हम इस किताब को पढ़ें तो इस ख़याल से कि हमें हिन्दुस्तान के ईमान को जिन्दा रखना है।
प्रोफेसर एस. इरफ़ान हबीब ने कहा, आज हम बहुत जल्दी सबकुछ हासिल कर लेना चाहते हैं। इस जल्दबाजी में हम मूल्यों की परवाह नहीं करते। हम नैतिकता को भुला रहे हैं।
उन्होंने कहा, राजीव भार्गव ने अपनी किताब में हमारे समय के बहुत जरूरी सवालों को उठाया है और बड़ी खूबसूरती से उनके जवाब भी दिए गए हैं। यह किताब हमें एक उम्मीद दिखाकर खत्म होती है कि यह समय भी बदलेगा। यह भरोसा करना बहुत जरूरी है कि आज हम जहाँ है उससे एक दिन जरूर बाहर निकलेंगे।
रूपरेखा वर्मा ने कहा, यह किताब ऐसे समय में आई है जब हमारा संविधान और लोकतंत्र ही नहीं बल्कि जीवन और समाज का हर पहलू संकट में है। आज हर चीज पर दोबारा विचार की जरूरत पड़ रही है। पिछले कुछ सालों से मैं खोज रही हूँ कि हमारा देश कहाँ है। हालांकि वो वैसा तब भी नहीं था जैसा हम उसे बनाना चाहते थे लेकिन उस समय उसके वैसा बनने की एक उम्मीद दिखती थी, अब वो भी नहीं रही।
उन्होंने कहा, हमारा लोकतंत्र आज बहुत बीमार है। इस वक्त में सबसे अहम सवाल यह है कि हम अपने लोकतंत्र और पारस्परिकता की समझ को कैसे अमल में लाएं। यह किताब एक दिशा देती है कि हमें किस नज़रिए से इस समय को देखना चाहिए। मेरे विचार से हमारे जीवन और समाज का ऐसा कोई पहलू नहीं बचा है जिस पर यह किताब नैतिकता की दृष्टि से विचार न करती हो। इस समय के लिए यह एक बहुत महत्वपूर्ण और सामयिक किताब है।
संजय हेगड़े ने कहा, संविधान वह नहीं है जो वकीलों और जजों के बीच कोर्ट की बहसों तक सीमित होता है। संविधान एक नागरिक का दूसरे नागरिक के साथ समझौता है। संविधान वह है जिसकी बुनियाद पर एक नागरिक दूसरे नागरिक को यह भरोसा दिलाए कि जो हमारा हक है, वह तुम्हारा भी हक है। यही संवैधानिक नैतिकता है जो हमारे संविधान को एक सूत्र में बांधती है और उसे ही राजीव भार्गव ने अपनी किताब में लिखा है।
उन्होंने कहा, राजीव भार्गव ने अपनी किताब में जिन विषयों पर टिप्पणियाँ कीं हैं वो आगे ऐसे और जरूरी कामों के लिए एक भूमिका का काम करेंगी। मैं यह आशा करता हूँ कि ज्यादा से ज्यादा लोग इसे पढ़ें और संवैधानिक नैतिकता को आगे बढ़ाएँ।
अभिषेक श्रीवास्तव ने कहा, हमारे यहाँ के प्रचलित विमर्श में राजनीति, विचारधारा, संस्कृति और इतिहास पर बात होती है, लेकिन नैतिकता पर बात नहीं होती। पूरे समाज में इस बात को लेकर एक तरह से सहमति दिखाई पड़ती है कि क्या अच्छा है, क्या बुरा है, क्या सही है और क्या गलत है। इसकी वजह से हमारे समाज में पिछले कुछ वर्षों में एक अजीब तरह का ध्रुवीकरण पैदा हो गया है। इसके चलते आज स्थिति यहाँ तक आ पहुँची है कि हमारी जिससे असहमति होती है, उनसे हम संवाद तक नहीं करते। हम अपने जैसे लोगों को खोजते हैं, जो हमारे जैसा सोचते हैं। हमारा समाज लगातार अलग-अलग पालों में बंटता जा रहा है। एक बंटे हुए, ध्रुवीकृत समाज में, नीति और नैतिकता के परिप्रेक्ष्य में, हमारा रोजमर्रा का व्यवहार और विचार क्या हो, चीजों को देखने का नज़रिया क्या और कैसा हो, इस पर प्रो. राजीव भार्गव ने अपनी इस किताब में बहुत शिद्दत से बात की है।
किताब के लेखक राजीव भार्गव ने अपनी बात रखते हुए कहा, हमारी हजारों वर्षों की सभ्यता ने जो मूल्य अर्जित किए, वो आज खंडित हो रहे हैं। वो मूल्य बड़े संकट में है, वो जिएंगे कि मरेंगे इस बात का खतरा है। इसका निर्णय हमें एक सामूहिक समझ से करना है। इसी निर्णय से हम राष्ट्र की आत्मा और सभ्यता को बचा पाएंगे। मूल्यों के बिना हम जी नहीं सकते। यदि हम मूल्यों से खुद को अलग करते हैं तो फिर हम मनुष्य ही नहीं रह पाते।
इस किताब में मैंने ‘राष्ट्र’ शब्द पर जोर देकर इसे बार-बार इसलिए इस्तेमाल किया है क्योंकि मेरा मानना है कि राष्ट्र के बारे में बात नहीं करके हमने उसे कहीं दूसरी तरफ धकेल दिया है। हमें उसे रिक्लेम करने की जरूरत है। मेरी प्रेरणा यही थी कि मैं इस किताब के जरिए लोगों से बात कर सकूँ, उनसे जुड़ सकूँ। मुझे जिस तरह की प्रतिक्रियाएँ मिल रही हैं तो लगता है कि मैं इस मकसद में कुछ कामयाब हुआ हूँ।
किताब के बारे में :
भारत की सामूहिक नैतिक पहचान बहुत दबाव में है। हमारी सामूहिक भलाई किस चीज़ में है, इस पर देश में कोई आम सहमति नहीं दिखती। कुछ समूह मानते हैं कि भारत आख़िरकार अपनी हिन्दू पहचान को वापस पा रहा है और फिर से एक महान राष्ट्र-राज्य बनने की राह पर है। कुछ अन्य के लिए यह बदलाव हमें अपने उस सभ्यतागत चरित्र को गवाँ देने के कगार पर ला चुका है, जहाँ समावेशी होने का अर्थ कम हिन्दू या कम भारतीय होना नहीं था।
राजीव भार्गव का मानना है कि एक समावेशी और बहुलतावादी भारत के विचार से जिन लोगों का भी मोहभंग हो चुका है, उनकी जायज़ चिन्ताओं को भारत के संवैधानिक लोकतंत्र के खाँचे के भीतर ही सम्बोधित किया जा सकता है। अपने संक्षिप्त, सहज और सुबोध लेखों में वे पाठकों को भारतीय गणतंत्र के बुनियादी आख्यानों तक ले जाते हैं। वे यह बताने की कोशिश करते हैं कि अगर मूल नीतियों और नैतिक दृष्टि पर हमारी समझ सही बन पाई, तो हो सकता है कि हम अपने देश को और ज़्यादा ध्रुवीकरण से अब भी बचा ले जाएँ और साथ ही कुछ दरारों को भी भर सकें।
लेखक के बारे में :
राजीव भार्गव का जन्म सन, 1954 में हुआ। शिक्षा दिल्ली और ऑक्सफ़ोर्ड में प्राप्त की। दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अध्यापन भी किया। विभिन्न विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दे चुके हैं; विज़िटिंग प्रोफ़ेसर के पद पर रहे हैं और फ़ेलो के रूप में हार्वर्ड विश्वविद्यालय (संयुक्त राज्य अमेरिका), ब्रिस्टल विश्वविद्यालय (यूनाइटेड किंगडम), इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज़ (जेरुसलम), विस्सेन शॉफ़्ट्स कॉलेज (बर्लिन) तथा दी इंस्टीट्यूट फ़ॉर ह्यूमन साइंसेज़ (विएना) से जुड़े रहे हैं। इसके अलावा इंस्टीट्यूट फ़ॉर रिलीजन, कल्चर एंड पब्लिक लाइफ़, कोलम्बिया विश्वविद्यालय में विशिष्ट रेज़िडेंट स्कॉलर तथा साइंसेज़ पो (पेरिस) के एशिया चेयर भी रह चुके हैं। 2015-17 के दौरान स्टैनफ़ोर्ड (कैलीफ़ोर्निया), त्सिंगुआ (बीजिंग) तथा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालयों में बर्ग्रुएन फ़ेलो रहे हैं। 2014-18 के बीच इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल जस्टिस, एसीयू (सिडनी) में प्रोफ़ेशन फ़ेलो, 2022 में लाइपज़िग विश्वविद्यालय (जर्मनी) में सीनियर रिसर्च फ़ेलो रहे।
उनकी प्रकाशित एवं चर्चित कृतियों में प्रमुख हैं—‘बिटवीन होप एंड डिस्पेयर’, ‘इंडिविडुअलिज़्म इन सोशल सांइस’, ‘ह्वाट इज़ पॉलिटिकल थिअरी एंड व्हाइ डू वी नीड इट?’ तथा ‘द प्रॉमिज़ ऑफ़ इंडियाज़ सेक्युलर डेमोक्रेसी’। ‘सेक्युलरिज़्म एंड इट्स क्रिटिक्स’, ‘पॉलिटिक्स एंड एथिक्स ऑफ़ द इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन’ तथा ‘पॉलिटिक्स, एथिक्स एंड द सेल्फ़ : री-रीडिंग हिंद स्वराज’ उनकी सम्पादित पुस्तकें हैं।
बेलिअल कॉलेज, ऑक्सफ़ोर्ड (यूनाइटेड किंगडम) में मानद फ़ेलो हैं। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसायटीज़ (सीएसडीएस), दिल्ली में मानद फ़ेलो और इसके पारेख इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडियन थॉट के निदेशक हैं। 2007 से 2014 तक सेंटर के निदेशक भी रहे।
फिलहाल वे दिल्ली में रहते हैं।