संस्करण विवरण
फॉर्मेट:पेपरबैक
पृष्ठ संख्या :१९०
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
प्रथम वाक्य :
मन्त्र बोलते-बोलते गुड्डो का मन अनायास उसके अर्थों में अटक जाता है – हे जड़ चेतन में व्याप्त ,सब प्रजाओं के स्वामी परमात्मा ! जिस जिस पदार्थ की कामना करने वाले होकर हम भक्ति करें , आपका आश्रय लेवें और वांछा करें वह हमारी कामना सिद्ध होवे , जिससे हम लोग धनेश्वर्यों के स्वामी होँ।
हवन सुषम बेदी का १९८९ में प्रकाशित उपन्यास है। उपन्यास कहानी है प्रवासी भारतीयोँ के जीवन की और उन मुश्किलातोँ की जिनका सामना उन्हें और उनके बच्चो को उधर रहकर करना पढता है। शुष्म जी ने बड़ी बखूबी से गुड्डो, उसके परिवार , और बाकी जितनो लोगोँ के माध्यम से इसे दर्शाया है। गुड्डो के पति प्रेम चड्ढा की जब असमय मृत्यु हो जाती है तो अपने परिवार का सारा दायित्व उसपर आ जाता है। रिश्तेदार उसकी मदद तो करते हैं पर ये मदद उसे कम महसूस होने लगती है। इसी बीच जा उसकी छोटी बहन पिंकी उसे अमेरिका आके बसने का न्योता देती है तो उसके मन में एक उम्मीद की किरण जाग जाती है। अमेरिका के वैभव के विषय में जो उसने अपनी बहन से सुना था उससे उसे ये यकीं हो चुका था की अवसरो के देश में उसे भी अपने परिवार को अच्छा और बेहतर जीवन यापन करा सकने के अवसर मिलेंगे। और इसी उम्मीद के साथ वो अपनी बेटियोँ को हॉस्टल में दाखिला दिला कर अपने छोटे बेटे राजू के साथ अमेरिका चली जाती है। आगे उसके जीवन में जो घटनाएं घटती हैं और वो उधर रहकर जो महसूस करती है इसी का काफी सुन्दर और हृदयस्पर्शी विवरण किया है सुषम जी ने।
हवन उपन्यास का वैसे तो कोई मुख्य पात्र नहीं लगा मुझे , ये सभी पात्रो के जीवन की कहानी है ।हवन प्रवासी भारतियो की कहानी है तो वे लोग इन बातोँ से ज्यादा रिलेट कर पायेंगे। मैं तो केवल पात्रो की जीवनधारा देखकर ये कह सकता हूँ की सभी पात्र मुझे जीवंत लगे । उनकी परेशानी मुझे रीयलिस्टिक लगी और कहीं भी किसी चीज से कृतम्ता का बोध नही हुआ। सबसे पहले हम गुड्डो के माध्यम से देखते हैं की एक प्रवासी जो भारत को छोड़कर अमेरिका जाता है उसे उधर कैसा लगता है। यानी की जो उसका सांस्कृतिक माहॊल बदलता है उससे वो कैसे डील करता है ।उधर दूसरी तरफ लेखिका ने हमे एक दुसरे व्यू पॉइंट से भी परिचित कराया है। वो उन बच्चो का है जो पैदा तो भारत में हुए हैं और कुछ वर्षों तक उनकी पढाई भी भारत में हुई है लेकिन जब अपने अभिभावकों के साथ उन्हें भी पलायन करना पड़ता है तो उन्हें अपने को कैसे एडजस्ट करना पड़ता है । राजू इन्ही पात्रो का प्रतिनिधित्व करता है । एक तीसरे नजरिये को भी लेखिका ने दिखाया है , की कैसे वो बच्चे जो अमेरिका में पैदा हुए हैं और यही पले बढे हैं अपनी भारतीयता और अमेरिकानिस्म के बीच में सामंजस्य बनाने की कोशिश करते है। और कैसे उनके अभिभावक उन्हें ऐसे भारतीय संस्कार देने चाहते थे जिनका खाली उस समय से सरोकार होता है जिस समय में उन्होंने भारत छोड़ा था। ऐसे वातावरण में बच्चे न तो पूरे अमेरिकन बन पाते हैं और न ही पूरे भारतीय। वो केवल एक त्रिशंकु के जैसे दोनों संस्कृतियो के बीच लटकते रहते हैं । इसका प्रतिनिधित्व करते हैं अर्जुन और राधिका। मैं ये जानता हूँ सभी के साथ ऐसा नहीं होता होगा लेकिन ज्यदातारो के साथ ये घटित होना लाजमी है। फिर कुछ ऐसे मुद्दो को उठाया गया है उपन्यास में जैसे कि अमेरिकन समाज का भारतीयो या किसी भी प्रवासी का पूरी तरह न अपनाना और अन्य परेशानिया जो अमेरिकी संस्कृति का हिस्सा है पर भारतीय होने के वजह से उन्हें अटपटा लगता है । ऐसी कई चीजोँ को लेखिका ने दर्शाया है ।मैं सभी कुछ तो इधर नहीं लिख सकता लेकिन केवल ये कहना चाहूँगा कि हवन एक बेहतरीन उपन्यास है और मैं चाहूँगा की बाकी लोगो को भी ये पढना चाहिए।
उपन्यास की ही कुछ पंक्तियाँ जो विभिन्न कारणोँ से मन को अच्छी लगी-
ज़िन्दगी को बेहतर और सुखतर बनाने के लिए कितने ही कृतम साधनो को इक्कठा कर रहा है समाज। सारी उम्र उन सुख के साधनो को जुटाने में ही खर्च हो जाती है। हर काम को आसान बनाने के लिए नई से नई मशीन की ईजाद और फिर उस मशीन को हासिल करने के लिए खुद पैसा कमाने की मशीन बन जाना। बस, एक मशीन से दूसरी मशीन के दौर से गुजरने में ही जिंदगी की मशीन के कल पुर्जों का धीरे-धीरे क्षय हो जाना।
हिन्दुस्तान में जहाँ गरीबी ,रूढ़िवादिता , सामजिक हस्तक्षेप और तर्कविहीन नैतिकता के भूत हैं , तो यहाँ घोर स्वार्थ ,अतिभोगवादिता और अकेलेपन के भूत बसते हैं और यह भी करोड़ो की तादाद में।
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