फॉर्मेट: हार्डकवर | पृष्ठ संख्या: ९६ | प्रकाशक: सत्साहित्य प्रकाशन
पहला वाक्य :
विचारों में डूबे हुए गुरुचरण बाबू एकान्त कमरे में बैठे हुए थे ।
शरत चन्द्र जी मूलतः तो बंगाली में ही लिखते थे लेकिन हिंदी भाषा में भी उनकी अनुवादित रचना उतनी ही पढ़ी और सराही जाती हैं। ‘परिणीता’ शब्द का अर्थ विवाहित स्त्री होता है।यह उपन्यास सन १९१४ में पहली बार प्रकाशित हुआ था। यह कहानी ललिता नामक लड़की की है। ललिता एक अनाथ १३ वर्षीय लड़की है जो अपने मामा गुरुचरण बाबू के घर में रहती है। गुरुचरण बाबू की माली हालत ठीक नहीं है और इस बात से वे परेशान रहते हैं।उनके ऊपर काफी कर्जा है और अपनी बड़ी बेटियों के विवाह के लिए उन्होंने अपने घर तक को गिरवी रख दिया है।गुरुचरण बाबू के पडोसी नवीन राय हैं जो कि एक धनवान व्यापारी है।पडोसी होने के नाते नविनराय और गुरुचरण के परिवारों में बहुत स्नेह है।ललिता का भी नवीन राय के घर में भी आना जाना है।नवीन की धर्मपत्नी भुवनेश्वरी ललिता को अपनी बेटी सी मानती है।वहीं ललिता और नवीन राय के छोटे बेटे शेखर के बीच में बहुत स्नेह है। शेखर ललिता को पढ़ाता है और ललिता शेखर के चीजों को सहेज कर रखने में आनंद आता है। ललिता और शेखर के बीच जो प्रेम है उसका एहसास उन दोनों को तब होता है जब उन दोनों के लिए जीवन साथी ढूँढना शुरू हो जाता है।शेखर के पिता एक अमीर घर की लड़की के साथ शेखर का विवाह करना चाहते है ताकि उन्हें दहेज़ में मोटी रकम हासिल हो।वहीँ दूसरी और गुरुचरण बाबू भी ललिता के लिए रिश्ता ढूँढ रहे हैं।अगर वे जल्दी ही ललिता का विवाह नहीं कर पाते हैं तो उन्हें बिरदिरी से निकाला जा सकता हैं।इसी बीच उनके पड़ोस में गिरीन्द्र नामक युवक आता है और वो ललिता पे मोहित हो जाता है। वो ललिता से विवाह करना चाहता है लेकिन क्यूंकि वो ब्राह्मो समाजी है तो इसलिए ललिता का विवाह उससे नहीं हो सकता है।क्या शेखर और ललिता एक हो पायेंगे ? क्या गुरुचरण बाबु अपने ऊपर लगा कर्जा उतार पायेंगे? गिरीन्द्र इस कहानी में किधर फिट होता है ? इन सब प्रश्नों के उत्तर आप इस उपन्यास को पढ़कर ही जान पायेंगे ।
शरत चन्द्र जी कि यह रचना एक प्रेम त्रिकोण तो है ही लेकिन इसमें उस वक़्त के सामजिक ढांचें का भी पता लगता है। ब्रह्मों समाजी और हिन्दुओं के बीच तो पारस्परिक टकराव है ही लेकिन हिन्दुओं में भी बिरादिरी के कानून भी बड़े सख्त हैं। अगर कोई गरीब इनको मान नहीं सकता तो उस बिरादिरी से निकाला जाना लाजमी समझा जाता है।जैसे गुरुचरण बाबू को बिरादिरी से निकलना एक दम निश्चित रहता है क्यूंकि उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वो अपनी लड़कियों का ब्याह कर सकें।इन सबसे खीज कर जब वो ब्रह्मों समाज अपना लेते हैं तो बाकि लोग उनका तिरस्कार करते हैं।इस संकीर्ण और कठोर समाज का चित्रण शरत जी ने अपने इसी उपन्यास में ही नहीं बल्कि काफी उपन्यासों में किया है।
इस उपन्यास का नायक शेखर है जो कि मुझे कमज़ोर लगा । वो ललिता पे हुक्म चलाता है और जो काम उसे पसंद नही वो उसे भी नहीं करने देता है।वो अपने पिताजी के डर से अपने और ललिता के विषय में उन्हें नहीं बता पाता है और अपनी कमजोरी को छुपाने के लिए ललिता पे ही नाराज हो जाता है।
निर्लज्ज ललिता स्वयं उसकी छाती से छाती मिलाकर तमाम बातें करने को तैयार थी, उसके लिए भी उसने अवसर नहीं दिया। सारे अपराध वह ललिता के सर पर ही मढ़ रहा था, फिर भी स्वयं ही अपनी हिंसा ,क्रोध और अभिमान से जल भुन रहा था।
वहीं दूसरी ओर इस उपन्यास की नायिका ललिता है। वो उम्र में शेखर से काफी छोटी है लेकिन फिर भी उससे सायानी है। वो शेखर की तरह कमज़ोर नहीं है और उपन्यास में समय समय पर इसका परिचय देती है ।
इस उपन्यास के तीसरे मुख्य किरदार गिरीन्द्र बाबू है जो कि ललिता की सखी चारूबाला के मामा लगते हैं । वे जब ललिता को देखते हैं तो उन्हें वो अच्छी लगती है।वो दयालु तो हैं ही लेकिन अपनी ज़बान के पक्के भी हैं । वो एक ब्राह्मो समाजी हैं।
इन तीन किरदारों के इर्द गिर्द ही कहानी घूमती है।उपन्यास मुझे अच्छा लगा।लेकिन आजकल के ज़माने में ये उपन्यास फिट नहीं बैठता है।उपन्यास में जो ललिता की उम्र है और शेखर की उम्र है उसे पढ़कर आपको उनका रिश्ता अजीब लग सकता है।किन्तु क्यूंकि उस वक़्त बाल विवाह का प्रचलन था तो उस वक़्त के हिसाब से कहानी सही है ।
बाकि उपन्यास का कलेवर लघु है लेकिन इसके पात्र जीवंत है।उपन्यास पढने में मुझे तो मज़ा आया।आपको ये उपन्यास कैसा लगा ?? ये बताना नहीं भूलिएगा।अगर आपने इस उपन्यास को नहीं पढ़ा है तो आप निम्न लिंक्स के जरिये मंगवा सकते हैं :