कर्मभूमि – प्रेमचंद

रेटिंग: 3.5/5
उपन्यास ६ जून 2016 से १२ जून 2016 के बीच पढ़ा गया
संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या: 280
प्रकाशक : मेपल प्रेस 

पहला वाक्य :
हमारे  स्कूलों और कॉलेजों में जिस तत्परता से फीस वसूल की जाती है,शायद मालगुजारी भी उतनी सख्ती से नहीं वसूल की जाती। 

प्रेमचंद की कर्मभूमि अमरकान्त के चारो ओर घूमती है। अमरकान्त एक आदर्शवादी युवक है और अपने आदर्शों की राह पर चलना चाहता है। वो खादी पहनता है, चरखा चलाता है, और समाज की रूढ़ियों से लड़ना चाहता है। 

लेकिन वो एक अमीर व्यापारी बाप समरकान्त का एक लौता पुत्र है। उसके पिताजी ने व्यापार में छल कपट करके काफी धन इकठ्ठा किया है और इसीलिये उनमे आपस में नहीं बनती है। समरकान्त को लगता है कि अमरकान्त केवल वक्त बर्बाद करता है, वो वक्त जिसको कि व्यापार में लगाकर सदुपयोग किया जा सकता था। 
दूसरी और अमरकान्त की पत्नी सुखदा है। उसमें और अमरकान्त में कभी नहीं बनी। वो एक अमीर घर की लड़की है जिसने ऐश्वर्य का जीवन जिया है। अमरकान्त के विचारों से वो सहमत नहीं हो पाती। वहीं अमरकान्त भी उसे धन लोलुप समझता है। और फिर कुछ ऐसा होता है कि अमर घर बार छोड़कर निकल जाता है।
क्या हुआ था अमर के साथ? उसके घर छोड़ने का क्या प्रभाव हुआ? अमर का अपने पिताजी और पत्नी के साथ टकराव का क्या नतीजा निकला? 

उपन्यास की बात करूँ तो उपन्यास मुझे पसंद आया। कर्मभूमि  पहली बार 1932 में प्रकाशित हुआ था और इसलिए इसमें उस वक्त के समाज का वर्णन करता है। इसमें वो कुरीतियाँ भी मौजूद है जो उस वक्त समाज में रही होंगी। जैसे छुआ छूत, अमीरों द्वारा गरीबों का शोषण, अंग्रेजों द्वारा भारतीयों का शोषण इत्यादि।  और फिर उनको बदलने के लिए संघर्ष करते हुए लोग भी मौजूद हैं। अगर देखा जाए तो उस वक्त के समाज में और आज के समाज में आपको ज्यादा फर्क देखने को नहीं मिलेगा। और यही बात प्रेमचंद के साहित्य को आज के समय में भी प्रासंगिक बनाती है। आज  भी कुछ लोग ऐसे हैं जो रूडीवादी है और आज भी लोग उन रूडियों के खिलाफ लड़ रहे हैं। 
उपन्यास पठनीय है।उपन्यास के किरदार भी मुझे पसंद हैं क्योंकि वो अपने अनुभवो के आधार पर बदलते रहते हैं।  उनमें अलग अलग शेड्स हैं। न कोई पूरी तरह अच्छा है और न कोई पूरी तरह बुरा। यही बात किरदारों को तीन आयामी और जीवंत बनाती है।हाँ,एक चीज की कमी दिखी कि सारे किरदारों में बदलाव अच्छे ही होते हैं जो कि अक्सर देखा नहीं जाता है।
इसके इलावा कहीं कहीं नाटकीयता ज्यादा थी जो उपन्यास को कम रोचक बना देती है। और अंत ऐसा है जो यथार्थ के नज़दीक कम ही लगता है। वो तो हिंदी फिल्मों का क्लाइमेक्स लगता है जिसमे हीरो या हीरोइन के पिताजी जो पूरी फिल्म में चाहे खलनायक रहे हो लेकिन अंत तक आकार उनमे बदलाव हो ही जाता है और सब मिल जुलकर रहने लगते हैं।
मेरे लिए ये जानना रुचिकर होगा कि किन प्रसंगों से प्रेरित होकर प्रेमचंद जी ने इस उपन्यास की रचना की थी।
उपन्यास को एक बार पढ़ा जा सकता है। ।
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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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