संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 286 | प्रकाशक: रवि पॉकेट बुक्स | शृंखला: रीमा भारती सीरीज

पहला वाक्य :
‘सूं…S….!’
मैंने शंकरगढ़ रेलवे स्टेशन पर पाँव रखा ही था कि मेरे कानों में एक बेहद बारीक स्वर पड़ा।
कहानी
नुसरत बानों शंकरगढ़ रियासत की मालकिन थी। उनके पति देश की सेवा करते हुए शहीद हो गये थे। अब वो किसी गहरी चाल का शिकार हो गयीं थीं और उन्होंने गृह मंत्रालय से मदद की गुहार लगाईं थी।
इस कारण रीमा भारती को शंकरगढ़ जाने के लिए चुना गया था। उसे उधर जाकर नुसरत बानों की मदद करनी थी और उस साजिश का भंडाफोड़ कर उन्हें उनकी मुसीबत से निजाद दिलानी थी।
आखिर कौन थीं ये नुसरत बानों?
उनकी परेशानी क्या थी?
क्या रीमा मिशन में कामयाब हो पायी? और इसके लिए उसे किन परेशानियों से गुजरना पड़ा।
टिप्पणी
रीमा भारती के उपन्यास पढ़ने मुझे पसंद हैं। गाहे बगाहे एक आध उपन्यास मैं पढ़ ही लेता हूँ। और कभी इन उपन्यासों ने मुझे निराश भी नहीं किया है। इनकी लेखन शैली भी मुझे ठीक ठाक लगती आयी है। अगर आप रीमा भारती से वाकिफ नहीं हैं तो बता दूँ रीमा भारती, इंडियन सीक्रेट कोर नामक ख़ुफ़िया संस्था की नंबर एक एजेंट है। उपन्यास मौत डरेगी मुझसे में भी उसके एक मिशन की कहानी कही गयी है। उपन्यास की बात करें तो इसकी कहानी मुझे ठीक ठाक लगी।
कुछ चीजें थी जिन्हें पचाने में मुझे दिक्कत हुई। जैसे एक मशीन का उल्लेख यहाँ है जो सपनों को तस्वीरों में बदल देती है जिसके माध्यम से कहानी का मुख्य पॉइंट आगे बढ़ता है। इसे थोड़ी मेहनत करके और ढंग से लिखा जा सकता था। बिना इस मशीन का प्रयोग किये भी उस बात तक पहुँचाया जा सकता था जहाँ मशीन के प्रयोग के बाद पहुँचा गया।
उपन्यास में कुछ किरदार कैनाडा से बुलाये जाते हैं। कैनाडा से भारत की जर्नी बारह घंटे की है। फिर शंकर गढ़ ट्रेन से ही पहुँचा जा सकता था। ये एक सुदूर इलाके में बसी रियासत थी। अगर ये अनुमान भी लगाया जाए कि सरकारी तरीके से सब कुछ वीसा वगेरह जल्दी हुआ तब भी रात को कहकर बारह घंटे के भीतर लोगों का इधर पहुँचना मुश्किल ही था। एक दो दिन का वक्त होता तो ज्यादा मुमकिन लगता।
लेकिन ये सब बातें फिर भी नज़रअंदाज हो सकती हैं। सबसे ज्यादा मुझे जिन बातों ने परेशान किया वो इसके किरदारों के दर्शाने के तरीके और लेखक की शैली थी।
उपन्यास में भले ही रीमा भारती आई एस सी की नंबर वन एजेंट हैं लेकिन कई जगह उसे वो बातें भी देर से समझ आती है जो कि साधारण पाठक भाँप सकता है। वो छोटी छोटी बातों में अवाक हो जाती है। और आप सोचने पे मजबूर हो जाते हैं कि अगर ये नंबर वन है तो बाकी के एजेंट कैसे मूढ़ बुद्धि के होंगे।
उदाहरण के लिए मैडम बानो जावेद की ह्त्या दर्शाती तस्वीर देखती हैं। वो जावेद की सुरक्षा के लिए चिंतित हैं। उन्हें एक फोन आता है और वो बेहोश हो जाती हैं और रीमा अवाक हो जाती है। उसे पता नहीं क्यों बानो बेहोश हुई हैं। ये तो बच्चे को भी पता चल जाएगा।
फिर एक इंस्पेक्टर एक आर्टिस्ट को केवल इसलिए मारता है क्योंकि वो हत्या से पहले उसकी तस्वीर बना लेता था। इंस्पेक्टर को लगता है कि वो किसी से मिला हुआ है। अब इससे बेवकूफाना हरकत क्या हो सकती है। रीमा भी उस वक्त तक इंस्पेक्टर के तर्कों के सामने चुप हो जाती है। फिर वो एक साधारण तर्क रखती है कि जो कातिल है वो भला क्यों तस्वीरें बनाएगा और ये तर्क सुनकर मैडम बानो अवाक रह जाती हैं। लेकिन ये तर्क वो इंस्पेक्टर के सामने नहीं देती है। उधर उसे इंस्पेक्टर की बातों का जवाब नहीं सूझता है।
एक बार वो ऐसी गुप्त मीटिंग में जाती है जहाँ मीटिंग में शामिल लोग बाइक्स में आये थे। वो लोग दस थे और बाइक्स भी जाहिर तौर पर दस थी। मीटिंग काफी देर चली। अगर कोई नौसीखिया जासूस भी होगा तो बाइक का नंबर नोट कर लेगा ताकि अपने स्रोतों से उनके विषय में जानकारी हासिल कर ले। फिर किसी का पीछा करेगा। लेकिन मैडम रीमा को ये बात नहीं सूझती है।
दुश्मनों के अड्डे में घुसने के लिए वो अपने साथ ऐसी औरत को भी ले जाती हैं जो कि कई सालों से भारत में रही नहीं है और न शारीरक रूप से फिट हैं। बाद में वही औरत उनके फँसने का कारण बनती है। एक प्रसिक्षित जासूस ऐसी बचकानी गलती करेगा तो उसे नंबर वन एजेंट कैसे माना जाए।
ऐसी और भी कई घटनायें उपन्यास में हुई हैं जो कि सोचने पर मजबूर करती है कि उपन्यास का छापने से पहले पढ़ा भी गया था या नहीं पढ़ा गया था।
इसके इलावा उपन्यास में दोहराव बहुत हैं। एक ही बात को घुमा फिरा के कई बार लिखा गया है जिससे उपन्यास कि कहानी का कसाव कम होता है। ऐसा लगता है केवल शब्द बढ़ाने के लिए ही उन्हें डाला गया है।
एक और बात उपन्यास में थी। उपन्यास के शुरू होते ही रीमा के ऊपर एक हमला होता है। वो हमला किसने किया था और क्यों किया था उसके विषय में कोई भी जानकारी उपन्यास में नहीं मिलती है। इसके इलावा कई जगह प्लाट की कंटिन्यूइटी भी टूटती है। जैसे :
पेज ११६ में किरदारों के बदन में कपड़े नहीं थे पेज ११८ में दोबारा वो कपड़े उतारने लगे,
पृष्ठ २२४ में बोला गया कि डाकुओं का सरगना मारा गया है और २२८ में वो फिर से जिंदा हो जाता है।
इन्हीं कारणों की वजह से मुझे उपन्यास पढ़ने में उतना मज़ा नहीं आया जितना की अक्सर आता था। मेरा मानना है कि एक कुशल सम्पादक इस कहानी को और अच्छा बना सकता था। इसमें जितनी परेशानियाँ है वो ऐसी हैं कि एक सम्पादक उन्हें पकड़ कर आसानी से हटा सकता था। अगर ऐसा होता कहानी अच्छी बन पड़ती और पाठक कहानी का ज्यादा अच्छे से आनंद ले पाता।
उपन्यास के विषय में अंत में यही कहूँगा कि ऐसा नहीं है कि मुझे ये खराब लगा। ये एक औसत उपन्यास था। बस इसमें इतनी कमियाँ लगी कि पढ़ने का मज़ा किरकिरा सा हो गया और जो मज़ा औसत होना था वो औसत से नीचे चला गया। मैं तो इस उपन्यास को पढ़ने की सलाह नहीं दूँगा।
अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो जरूर मेरी अपनी राय दीजियेगा कि आपको ये कैसा लगा।