संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक
पृष्ठ संख्या: 50
प्रकाशक : फ्लाई ड्रीम्स पब्लिकेशन
कुआँ – ब्रजेश कुमार |
पहला वाक्य:
सूखे पत्तों के चरमराने की आवाजें धीरे धीरे बढ़ती जा रही थी।
सतीश अपने दोस्त अजय को शहर से अपने गाँव विकरालगढ़ लेकर आया था। उन्हें गाँव में हो रही एक शादी में शामिल होना था।
अजय शहर में ही पला बढ़ा था और गाँव आने का उसका यह पहला अनुभव था। दोपहर का समय था, सूर्य अपने पूरे जलाल पर था और शोले उगल रहा था। बस ने उन्हें जहाँ उतारा उधर से सतीश का गाँव काफी दूर था इसलिए सतीश ने एक छोटे रास्ते से जाने की सोची।
यह छोटा रास्ता एक जंगल के मध्य से जाता था और इसी शोर्ट कट पर वो कुआँ पड़ता था जिधर किसी भी गाँव वाले का जाना निषेध था। इस कुएँ के नजदीक जाने से सभी गाँव वाले खौफ खाते थे। सतीश भी उन्हीं गाँव वालों में से था। अजय को जब सतीश ने कुएँ के विषय में बताया तो उसे सतीश की दकियानूसी बातों पर तरस आया।
फिर वो हुआ जो नहीं होना चाहिए था। अजय कुएँ तक गया। उसे नहीं जाना चाहिए था।
आखिर क्या था विकरालगढ़ के कुएँ का राज? अजय क्यों कुएँ तक गया था? क्या सचमुच कुएँ की कथा के पीछे कुछ सच्चाई थी या ये दकियानूसी गाँव वालों का अंधविश्वास था?
ऐसे ही कई प्रश्नों के उत्तर आपको इस उपन्यास को पढ़कर मिलेंगे।
मुख्य किरदार :
सतीश – विकराल गढ़ का एक युवक जो शहर में पढ़ता है
अजय – सतीश का दोस्त
पूजा – सतीश की बहन
शीतल – सतीश की माँ
संतोष – गाँव का एक आदमी
हरीश सिसोदिया – सतीश के पिता
भोजराज – एक आदिवासी जो जंगल की सुरक्षा किया करता था
कुआँ ब्रजेश कुमार जी का लघु उपन्यास है। इसका कथानक पचास पृष्ठों में फैला है। कहानी की बात करूँ तो मुझे कहानी के पीछे का विचार काफी पसंद आया। लघु उपन्यास में कुछ दृश्य हैं विशेषकर अजय के चारपाई पे बैठने वाले, या उसके बाद के दृश्य जब किसी किरदार के लिए ओझा बुलाया जाता है(वो दृश्य क्या हैं उनके विषय में नही लिखूँगा। बेहतर रहेगा आप किताब पढ़कर ही उनके विषय में जाने। ) बेहतरीन हैं और डर पैदा करने में कामयाब होते हैं।
परन्तु इसके इलावा कहानी को जिस तरह से दर्शाया गया है उससे यही लगता है कि इसके साथ न्याय नहीं हुआ है। इस कहानी में बहुत सम्भावना थी लेकिन उन ऊँचाइयों तक प्रस्तुत रूप में यह नहीं पहुँच पाती है। मैं इधर कुछ बातें रखूँगा जिस पर काम होने से मेरी नजरों में शायद कहानी बेहतर बन सकती थी।
पहले तो कहानी में काफी वर्तनी की गलतियाँ है और कुछ एक जगह वाक्य ऐसे लिखे गये हैं जो पढ़ने में अटपटे लगते हैं।
उदाहरण के लिए:
कई कई जगहों पर तो इतने ज्यादा पेड़ नज़र आ रहे थे जैसे आपस में एकदुसरे(एकदूसरे) से जानबुझ(जानबूझ) कर सट कर खड़े हों। (पृष्ठ 5)
पसीने से लथपथ और कपड़ों पर लगा हुआ खून। अब इस बात का साफ़ इशारा कर रहा था कि घटना ने अपना रुख किसी इंसानी जान की तरफ ले लिए था।(पृष्ठ 5)(यह मुझे अटपटा लगा। )
दूसरी घटना ये हुई कि _ पलंग से 50 मीटर दूर तक धड़ाम-सी आवाज़ के साथ पटकाया (पटका गया ) था। (पृष्ठ 19)
आवाज़ सुना घबराई अगले रूम से _ दौड़ते हुए आई। (पृष्ठ 19 )
गोरा रंग और लम्बी छोड़ी हाइट थी उनकी। (पृष्ठ 23 इस वाक्य में लम्बा चौड़ा लिखा ही था तो हाइट का औचित्य समझ नहीं आया। केवल ‘वे लम्बे चौड़े इनसान थे’ ही काफी होता।)
मंदिर में अब आरती की आवाज़ आने लगी थी। जिसकी धीमी आवाज़ सतीश के घर आराम से आ रही थी। (यह वाक्य भी मुझे अटपटा लगा।)
कमरे में पंखे की आवाज़ और _ की हिचकी की आवाज़ के बिना (अलावा/सिवा बेहतर शब्द रहता… बिना अटपटा लग रहा है) कोई हल्की सी भी आवाज़ नहीं आ रही रही। (पृष्ठ 26)
उसकी आँखों का रंग बिलकुल हरा दिखाई पड़ रहा था और उसका शरीर जैसे अब उसके वश में नहीं था क्योंकि _ के दोनों हाथ अब पीठ की तरह इस कदर जुड़े मुड़ चुके थे जिसे किसी भी इनसान के लिए कर पाना लगभग मुश्किल था।(इस वाक्य में और लगाने की आवश्यकता नहीं थी इसे दो छोटे वाक्यों में विभाजित किया जा सकता था।)
अब तक शांति से अपनी बातों का रट्टा लगता और घंटो से पंखों को घूरता। _ हर मायने में नार्मल हो सकता था पर अब उसकी हालत उसे देखने वाला कोई भी व्यक्ति ये दावे के साथ कह सकता था कि अब _ नोर्मल नहीं था, और तभी कमरे में भयानक सी गुर्राई आवाज(गुर्राई आवाज़ की जगह गुर्राई हो सकता था।) किसी पुराने टेप रिकॉर्डर की तरह बजने लगी।(इस पूरे अनुच्छेद को ही और बेहतर ढंग से लिखा जा सकता था। ) (पृष्ठ 28)
किरदारों के नाम की जगह मैंने _ इस्तेमाल किया है ताकि सस्पेंस बना रहे। ये 28 पृष्ठ तक के ही उदाहरण है ताकि पता चल सके कि मैं क्या कहना चाहता हूँ। आगे के पृष्ठों में भी ऐसे कई उदाहरण मिल जायेंगे। किताब को पढ़कर लगता है किसी ने इसकी प्रूफ रीडिंग नहीं की है। चूँकि यह कथानक ही पचास पृष्ठों का है तो मेरे ख्याल से यह लेखक की जिम्मेदारी भी है कि वह खुद ही प्रूफ रीड करते या अपने मित्रों से करवा लेते। खराब प्रूफ रीडिंग का खामियाजा कहानी को भी उठाना पड़ता है। कहानी का जिस हिस्से का असर सबसे ज्यादा होना चाहिए था उसका असर इस कारण कम हो जाता है। गलत सलत वाक्यों में ध्यान ज्यादा जाता है और कथानक से ध्यान भटक सा जाता है। उदारहण के लिए यह देखिये:
_ की भटकती गोल गोल आँखें अब कुएँ की तरफ नज़र गड़ाकर बढ़ रही थी। (पृष्ठ 45) भटकती गोल गोल आँखों ने मेरा पूरा ध्यान भटका दिया था और मैं यही सोच रहा था कि आँखें भटकती कैसी हैं? ऐसे ही एक आध वाक्य और हैं इस अनुच्छेद में लेकिन बेहतर हैं वो खुद ही पाठक पढ़े।
कहानी के कमजोर पहलुओं की बात करूँ तो कहानी कुएँ की है जिसके पीछे कुछ मान्यता है। कहानी में एक जगह लिखा है: ऐसी मान्यता है कि वह कुआँ एक श्राप था जो उस समय के एक राजा ने तब बनवाया था जब वो ये फैसला लेने को तैयार हुए थे कि सजाये मौत से बढ़कर भी कोई सजा दी जा सकती है।
यह विचार मुझे पसंद आया। परन्तु खाली एक कुएँ से ऐसी क्या सजा दी जा सकती है जो मौत से बद्दतर हो? यह प्रश्न भी मेरे मन में उठा था लेकिन लेखक इस बात का जवाब नहीं देते हैं। इसके अगले अनुच्छेद में भी वह इस बात का दोहराव कुछ इस तरह करते हैं: शायद वो एक प्रतीक था हैवानियत का जहाँ कैदियों को सजा के नाम पर मौत से भी बढ़कर सजा दी जाती थी। यह पढ़कर भी मन में यह प्रश्न जागता है कि आखिर वह सज़ा क्या थी? परन्तु इसका जवाब नहीं मिलता है जो कि निराशा पैदा करता है।
इसके अलावा कहानी में एक प्रसंग है जिसमें बदला लिया जा रहा है। उसे कुछ इस तरह से दिखाया है: पर उस रात मौत का मंजर उन लोगों पर गरजा चुका था, जो _ की मौत के पीछे शामिल थे। अब यही वो हिस्सा था जिससे सबसे ज्यादा भय पैदा किया जा सकता था। किस तरह से मौत का तांडव उधर खेला गया यह दर्शाया जा सकता था। इससे पाठक किरदारों से जुड़ाव महसूस करता और उसे डर भी लगता। लेकिन यह विवरण इससे नदारद था। कम से कम मुख्य मुख्य आरोपियों को तो उसके कहर का भोग बनते दर्शाया ही जा सकता था। इससे रोमांच पैदा होता और कथानक भी बड़ा बनता।
वही उपन्यास के अंत में एक किरदार किसी के पीछे भागता है और वापस बीहड़ों तक चला जाता है। उसके परिवार वालों ने उसे क्यों नहीं रोका यह मुझे समझ नहीं आया। क्या उसके परिवार का भी अंत हो गया था? अगर ऐसा था तो उसे क्यों छोड़ा गया था? अगर परिवार का अंत हुआ तो वो उसके पीछे क्यों भागा। उसे अपनी जान बचानी चाहिए थी। तर्क संगत तो उसका अपनी जान बचाना ही होता। ऐसे कई प्रश्न मेरे मन में थे जो अनुत्तरित रह गये थे।
इस लघु उपन्यास पढ़ने के बाद मन में एक अधूरे पन का भाव जागृत हुआ। कई बातें थी जिनको लेकर मन में प्रश्न थे लेकिन उनका कोई जवाब नहीं मिला।
अगर संक्षेप में कहूँ तो कहानी बहुत अच्छी बन सकती थी अगर निम्न बातें की होती:
जो प्रश्न अनुत्तरित हैं उसके उत्तर मिल जाते
कुछ बातों और प्रसंगों को विस्तार दिया होता (उदाहरण कुएँ की सजा, गाँव में मौत का तांडव इत्यादि )
प्रूफ रीडिंग ढंग से की होती।
अंत में यही कहूँगा कि लघु-उपन्यास जिस मूल विचार के इर्द गिर्द बुना गया वह मुझे पसंद आया लेकिन इस विचार को जिस तरह से कहानी के रूप में ढाला गया है वह और ज्यादा बेहतर हो सकता था। इस कारण मुझे यह लघु उपन्यास औसत से कम लगा। उम्मीद है अगली बार वह अपनी कहानी के हर पहलू पर काम करके उसे उस ऊँचाई तक ले जायेंगे जिसकी वह हकदार है।
मेरी रेटिंग:1.5/5
अगर आपने इस लघु उपन्यास को पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा? अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।
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