संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या: 278
प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स
आईएसबीएन:9789332420779 | श्रृंखला: देवराज चौहान
बारूद का ढेर – अनिल मोहन |
पहला वाक्य:
देवराज चौहान ने कार के ब्रेक दबा दिये।
ट्रेन में मौजूद छः करोड़ के माल की खबर जब देवराज को मिली तो उसने उसे उड़ाने का मनसूबा बना लिया। बस दिक्कत एक थी कि देवराज को न ट्रेन का पता था, न उसके गंतव्य स्थल का और न ही उसके निकलने का। पता था तो केवल एक बोगी नंबर।
देवराज को फिर भी इस बात इस बात का विश्वास था कि वो यह माल उड़ा ही ले जाएगा।
पर देवराज कहाँ जानता था कि माल जिसका है वो मुंबई का भाई जयंतराव मालवानी है। जयंतराव को इस बात की भनक लग गई थी कि कोई उसके माल पर हाथ डालने वाला है। और ऐसी हिमाकत करने वालों को जयंतराव केवल मौत देता था। चोरी करने वालों की मौत का सामान कर दिया था। अब उसे बस चोरी होने का इंतजार था।
क्या देवराज चौहान छः करोड़ के माल पर हाथ साफ कर पाया?
जयंतराव ने चोरों के लिए क्या बन्दोबस्त किये थे?
जयंतराव और देवराज के इस खेल में कौन विजेता रहा?
मुख्य किरदार:
देवराज चौहान – डकैती मास्टर
जगमोहन – देवराज का साथी
सोहनलाल – एक ताला तोड़ और देवराज का साथी
रामप्रसाद – रेलवे में मौजूद क्लर्क
राहुल मेहरा – रेलवे के बुकिंग ऑफिस में मौजूद एक कर्मचारी
जयंतराव लालवानी – मुंबई अंडरवर्ल्ड का राजा
विष्णु प्रताप – जयंतराव का दायाँ हाथ
सूरज प्रताप – विष्णु का छोटा भाई
केशव दईया – विष्णु प्रताप का आदमी और सूरज प्रताप का दोस्त
अवतार सिंह और करतार सिंह – जयंतराव लालवानी के गुर्गे
अब उपन्यास के विषय में बात करते हैं।
इस बार बहुत दिनों बाद देवराज चौहान से मुलाकात हुई। पिछले साल शायद ही मैंने देवराज से जुड़ा कोई उपन्यास पढ़ा होगा। अनिल मोहन जी के कुछ उपन्यास तो पढ़े थे इसलिए इस बार देवराज चौहान को पढ़ने का मन बनाया।
उपन्यास के कथानक के ऊपर बात करने से पहले उपन्यास के दूसरे पहलुओं पर बात करें। मैं प्रकाशक की तारीफ करना चाहूँगा। मेरे अब तक के अनुभव में जो बात देखने को मिली है उससे मुझे यही लगता है कि पॉकेट बुक्स के वाइट पेपर पर छपाई के मामले में राजा पॉकेट बुक्स से बेहतर कोई नहीं है। पन्ने बेहद क्रिस्प हैं और साइज़ भी एक दम परफेक्ट है। दूसरे प्रकाशकों को इनसे सीखना चाहिए।
कवर की बात करूँ तो आवरण मुझे इतना पसंद नहीं आया है। ये हॉलीवुड फिल्मों के चित्र काटकर आवरण बनवाना मुझे पसंद नहीं आता है। इससे पैसे जरूर बचते हैं लेकिन उपन्यास दोयम दर्जे का लगता है। इससे बढ़िया पेंटिंग से बने कवर होते थे। वही मुझे अपराध साहित्य की पुस्तकों पर पसंद हैं । वैसे ही आवरण इस पुस्तक का होता तो पुस्तक पर चार चाँद लग जाते। मेरे दिमाग में तो कवर का डिजाईन भी है। कहानी में बोगी नंबर 6633 का जिक्र है। अगर कवर कुछ ऐसा होता कि एक बोगी है जिस पर सोहनलाल,जगमोहन लटके हैं। देवराज बोगी के ऊपर है। बोगी का नंबर दिख रहा है। और बोगी का दरवाजा खुला है उससे एक बंदूक बाहर झाँक रही है या वो किसी किरदार पर लगी हुई है तो मजा आ जाता। मैं अगर प्रकाशन में होता तो ऐसा ही कुछ आवरण बनवाता।खैर, चूँकि नहीं हूँ तो केवल उसके विषय में लिख ही सकता हूँ।
उपन्यास के कथानक बात करूं तो देवराज चौहान का यह कारानामा भी तेज रफ्तार में घटित होता है। तेजी से सब कुछ होता है और पाठको को कहीं भी बोर होने का वक्त नहीं मिलता है। अगर आप देवराज चौहान के उपन्यास पढ़ते हैं तो आपको पता होगा कि देवराज चौहान के उपन्यास में रहस्य नहीं अपितु रोमांच होता है। यह रोमांच तेज रफ्तार कथानक भरपूर देता है। घटनायें होती रहती हैं। आपसी दाव पेंच भी चलते रहते हैं जो पाठक का भरपूर मनोरंजन करते हैं।
जगमोहन और सोहनलाल के एक तकरार सी चलती रहती है जो कि पढ़ने में रोचक है। उनके डायलॉग पढ़कर हँसी सी आ जाती है।
उपन्यास में देवराज और उसके साथियों का नशे के प्रति रुख देखने को मिलता है जो कि अच्छा लगा। विशेषकर सोहनलाल का क्योंकि वो खुद नशे की चपेट में है। उम्मीद है कभी उसे इस नशे से छुटकारा मिल जायेगा।
उपन्यास के बाकी किरदार कहानी के हिसाब से फिट बैठते हैं। केशव दईया और सूरज प्रताप की दोस्ती प्रभावित करती है। हाँ, दोस्ती वही होती है जो दोस्त को गलत काम करने से रोके और जो न रोके और गलत काम में साथ थे वो बंदे अपने दोस्त के साथ बर्बाद हो जाते हैं। यही इधर देखने को मिलता है।
देवराज चौहान के पिछले किस्सों का जिक्र भी उपन्यास में है। जिक्र के साथ उन उपन्यासों के नाम भी दिये रहते तो पाठक के लिए वो उपन्यास ढूँढ कर पढ़ने में आसानी होती। मुझे यह उपन्यास पढ़कर उसके उन उपन्यासों को पढ़ने की रूचि जागी है जिसमें उसने बड़े बड़े अंडरवर्ल्ड के दादाओं को धूल चटाई है।
उपन्यास के कमियों की बात करूँ तो इसकी कमी इसका अंत है। अंत जल्दबाजी में निपटाया गया प्रतीत होता है। उपन्यास में जो घुमाव लाने की कोशिश की है उसका पाठक पहले से अंदाजा लगा लेता है। वो उसे आश्चर्य में नहीं डालता है। इस कारण वो इतना प्रभावित नहीं करता है। उपन्यास में एक प्रसंग है जिसमें देवराज चौहान किसी को अपने कब्जे में लेता है। यह चीज हमे केवल बताई गई है। अगर बताने की जगह दिखलाई होती यानी यह दर्शाया जाता कि कैसे कब्जे में लिया तो पाठक के तौर पर घुमाव ज्यादा प्रभावित करता और उपन्यास जल्दबाजी में निपटाया सा प्रतीत नहीं होता।
एक और चीज मुझे खटकी थी। उपन्यास में जब माल की खबर लगती है तो यह भी पता लगा कि माल कपड़े धोने के पाउडर की शक्ल में भेजा जा रहा है। यह पढ़ते ही मुझे अंदाजा हो गया था कि माल क्या था। माल निकला भी वही लेकिन देवराज चौहान को न इसका अंदाजा हुआ और जब माल वही निकला तो उन्हें हैरत अलग से हुई। मेरे ख्याल से बेहतर यही होता कि माल किस शक्ल में भेजा जायेगा यह पहले नहीं बताना चाहिए था। यह बात चोरी के वक्त ही मालूम होती तो बढ़िया रहता।
अंत में यही कहूँगा कि ‘बारूद का ढेर’ का कथानक तेजी से भागता है और पढ़ते हुए कहीं भी बोरियत का अहसास नहीं होने देता है। हाँ, उपन्यास के अंत पर थोड़ा और काम करके इसे और बेहतर बनाया जा सकता था जिससे ऐसा न लगता कि जल्दबाजी में सब किया गया। मेरे ख्याल से तो उपन्यास एक बार पढ़ा जा सकता है।
मेरी रेटिंग:2.5/5
अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा? अपने विचारों से मुझे अवगत करवाईयेगा।
अगर आपने इस उपन्यास को नहीं पढ़ा है और पढ़ना चाहते हैं तो इसे निम्न लिंक पर जाकर मँगवा सकते हैं:
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हिन्दी पल्प फिक्शन
अच्छी समीक्षा है |
लेख आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा। आभार।
मैं आपको उस उपन्यास के नाम बता देता हूं जिसमें देवराज चौहान पुजारी भटनागर और सूरज प्रताप जैसे अंडरवर्ल्ड किंग से टकराया था, पुजारी भटनागर से देवराज चौहान जांबाज़ नामक उपन्यास में टकराया था, और सूरज प्रताप से दिल्ली का दादा एवं दरिंदा में,
रोचक जानकारी साझा की आपने मोईन जी। इन उपन्यासों को ढूँढकर पढ़ने की कोशिश रहेगी।