संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 191 | प्रकाशक: जनप्रिय लेखन प्रकाशन | श्रृंखला: जगत सीरीज
बदला – जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा |
पहला वाक्य:
रविवार का दिन था।
कहानी :
दिल्ली और आस पास की सड़कों पर एक नया गैंग सक्रिय था। इस गैंग की सरगना एक खूबसूरत लड़की बताई जाती थी जो कि लिफ्ट लेने बहाने गाड़ी रूकवाती थी और फिर गाड़ी वाले को लूट लेती थी।
इस गैंग के चलते शहर में दहशत का माहौल था।
जब पुलिस भी इस गैंग पर नकेल कसने में असफल रही तो यह मामला केन्द्रीय खूफिया विभाग के पास पहुँचा।
विराट शंकर हाल में ही केन्द्रीय खूफिया विभाग में नियुक्त हुआ था। वह एक होनहार जासूस था जिसने ट्रेनिंग के दौरान काफी उम्दा प्रदर्शन किया था। इस गैंग को पकड़ने का जिम्मा विराट को ही दिया गया था।
आखिर कौन थी गैंग की सरगना?
क्या विराट इस गैंग को रोक पाया?
जगत का इस मामले से क्या सम्बन्ध था?
ऐसे ही कई प्रश्नों के जवाब आप इस उपन्यास को पढ़कर मिलेंगे।
मुख्य किरदार:
जगत – एक अंतर्राष्ट्रीय ठग
राजेश – केन्द्रीय खूफिया विभाग का एक जासूस
तारा – राजेश की पत्नी
विराट शंकर – पंडित गोपाल शंकर का पौत्र और केन्द्रीय खूफिया विभाग में शामिल एक नया अफसर
मदर रोज – पंडित गोपाल शंकर की पत्नी
विशाल शंकर – विराट के पिता
इंस्पेक्टर हरीश पाल – एक इंस्पेक्टर जिसे अपराधिनी युवती ने पकड़ा था
चकवर्ती – केन्द्रीय खूफिया विभाग के चीफ
जमील – केन्द्रीय खूफिया विभाग के अफसर जो कि दिलीप कुमार के जैसे दिखते थे
जहीर अहमद – विराट शंकर के मातहत
अनारकली उर्फ़ माधुरी – होटल ब्रॉडवे में काम करने वाली एक कैबरे डांसर
जगन और बन्दूक सिंह – केन्द्रीय खूफिया विभाग के अफसर
डोना मर्फी – स्पेन की एक व्यपारी जो जगत की प्रेमिका भी थी
सरजू सिंह – होटल में चाय बनाने वाला
विक्टर सैमसन – केन्द्रीय खूफिया विभाग का एक अफसर
इरफ़ान – लॉकअप इनचार्ज
अनिल हावर्ड – होटल ब्रॉडवे में ऑर्केस्ट्रा बजाने वाला
मिस रीना – रिसेप्शन काउंटर पर दिन की क्लर्क
दुलारे लाल – माधुरी के साथ रहने वाला व्यक्ति
नमिता – जगन की पत्नी
कांता – केन्द्रीय खूफिया विभाग में काम करने वाली एक स्त्री
मैडम मुमताज उर्फ़ मैडम मुसीबत – लॉकअप इनचार्ज
धूमीलाल – एक व्यापारी जिनके पूरे परिवार को डाकुओं ने मौत के घाट उतार दिया था
किशोरीलाल – धूमीलाल का बिजनेस पार्टनर जिस पर धूमीलाल के घर डकैती डलवाने का इल्जाम था
श्रीपाल गर्ग – जगत के होटल का सहायक मैनेजर
शमीम – इरफ़ान की पत्नी
हनी – ब्रोडवे की कैब्रे डांसर
आर्थर लोबो – ज्योति होटल में ठहरने पर जगत यही नाम इस्तेमाल करता था
इस्माइल – रॉयल ऑटो सर्विस के मालिक
मेरे विचार:
बदला ओम प्रकाश शर्मा जी का वह पहला उपन्यास है जिसे मैंने पढ़ा। यह उपन्यास मुझे अपने मित्र कुलभूषण सिंह चौहान जी के माध्यम से पढ़ने को मिला। अच्छी बात यह है कि उनके द्वारा मुझे ओम प्रकाश शर्मा जी के तीन उपन्यास और दिए गये हैं जिन्हें मैं जल्द ही पढूँगा।
‘बदला’, आवरण चित्र के हिसाब से, जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा जी की जगत सीरीज का उपन्यास है।
उपन्यास में दी गयी जानकारी के हिसाब से इस उपन्यास का पहला संस्करण १९९२ में आया था और उससे पहले यह एक दैनिक सन्मार्ग नाम के अखबार में रविवार को धारावाहिक रूप से प्रकाशित होता था। साहित्यिक उपन्यासों और लम्बी कहानियों के विषय में तो मुझे पता था लेकिन मेरे लिए यह नई जानकारी थी कि पहले अखबारों में जासूसी उपन्यास भी सिलसिलेवार छपते थे। काश की यह चलन वापस लौट आये। मजा आ जायेगा।
अब उपन्यास की बात करूँ तो इधर मैं यह बात साफ़ करना चाहूँगा कि भले कि उपन्यास के आवरण पर यह दर्ज है कि यह जगत श्रृंखला का उपन्यास है लेकिन इस उपन्यास में जगत मुख्य भूमिका में नहीं है। वह कहानी में अहम किरदार जरूर निभा रहा है लेकिन मुख्य किरदार में वह नहीं है। कहानी के मुख्य किरदार विराट शंकर है जिसका साथ उसका साथी जहीर अहमद देता है।
विराट शंकर और जहीर अहमद केन्द्रीय खूफिया विभाग के नये जासूस हैं और इस उपन्यास में वो एक पेचीदा मामला सुलझाते हुए दिखते हैं। विराट शंकर भले ही केन्द्रीय खूफिया विभाग में नया नया शामिल हुआ है लेकिन जासूसी से उसका रिश्ता खानदानी है। ओमप्रकाश शर्मा जी ने इस उपन्यास को दुर्गा प्रसाद खत्री और देवकीनंदन खत्री जी के समर्पित किया है। और शायद यही कारण है कि उन्होंने उपन्यास के मुख्य किरदार, विराट शंकर,के रूप में दुर्गा प्रसाद खत्री जी के किरदार गोपाल शंकर के पौत्र को चुना है। मैं व्यक्तिगत रूप से गोपाल शंकर से वाकिफ नहीं था लेकिन इस उपन्यास के कारण अब दुर्गा प्रसाद खत्री जी द्वारा गोपाल शंकर को लेकर लिखे गये उपन्यास रक्त मण्डल,सफेद शैतान इत्यादि पढ़ने का मन करने लगा है। उम्मीद है जल्द ही इन्हें पढूँगा।
उपन्यास की कहानी की बात करूँ तो यह मुझे औसत लगी।
कहानी का सबसे कमजोर पहलू मुझे यह लगा कि इस कहानी में अपराधी का पता जासूसों को खुद ढूँढने के बजाए अपराधी के उन पर हमला करने से लगता है। इसके बाद अपराधी उन पर बार बार हमला करता है जिसका अंत अपराधी के पकड़े जाने से होता है। कहानी में अपराधियों का बार बार विराट और जगत को निशाना बनाना रोमांच पैदा करने वाली परिस्थितियाँ जरूर उत्पन्न करता है लेकिन आप यह भी सोचते हो कि उन्हें ऐसा करने की जरूरत ही क्या है। अगर अपराधी हमला ही नहीं करता, जो कि कोई समझदार अपराधी कभी नहीं करता, तो वह कभी पकड़ा ही नहीं जाता। एक बार अपराधी कौन है यह पता लग जाता है तो आगे का काम तो इतना जटिल नहीं रहता है।
कहानी में एक प्रसंग गाड़ियों और गैरज का है।यहाँ भी मैं इतना ही कहूँगा कि अगर कोई समझदार व्यक्ति होगा तो वह एक ही जगह से गाड़ियाँ नहीं लेगा। जब आपके पास ऐसी गैंग है जो डाके डाल सकती है तो उस गैंग की मदद से गाड़ियाँ चुराना ज्यादा मुश्किल नहीं होना चाहिये।
कहानी के अंत में भी अपराधी खुद चलकर ऐसी जगह आता है जहाँ जासूस उसे पकड़ लेते हैं। अगर इसके बजाय कहानी में यह दिखाया होता कि जासूस अपनी जासूसी के बल पर अपराधी के ठिकाने तक पहुँचते हैं तो मुझे कहानी बेहतर लगती।
कहानी की जो चीज मुझे ठीक लगी वह यह थी कि कहानी में भले ही अपराधी कौन है यह तो काफी जल्दी पता लग जाता है लेकिन वह यह अपराध क्यों कर रहा है इसका पता आखिर में ही चलता है। अपराधी की असलियत भी आखिर में ही पता लगती है जो कि कहानी में रूचि बनाये रखती है। कहानी में अपराधी के बार बार विराट और जगत पर हमला करने से रोमांच बना रहता है। आगे क्या होगा और उस परिस्थिति से हमारे नायक कैसे बचेंगे यह देखना रोचक रहता है।
कहानी में जासूसी में इस्तेमाल होने वाले ऐसे गैजेट भी हैं जो कि मुझे पसंद आये। जब भी आप खूफिया जासूस सुनते हैं तो जेम्स बांड सरीखे ऐसे गैजेट की कल्पना करने लगते हैं। इधर विराट के पास ऐसे गैजेट मिलते हैं। उसके पास एक गैजेट ऐसा है जो कि कहीं भी मौजूद विस्फोटक सामग्री की जाँच कर देता है और एक गैजेट से वह इनसानों की गंध के आधार पर उनका पता लगा लेता है। यानी अगर व्यक्ति रूप बदलकर भी आये तो इस गैजेट से उसके शरीर से उठती गंध से उसे पहचाना जा सकता है।
उपन्यास भले ही कहानी के मामले में मुझे औसत लगा था लेकिन किरदारों की रोचकता से अपनी भरपाई यह कर ही देता है। जहीर अहमद का किरदार हास्य उत्पन्न करता है। उसका बात बात पर ‘मजा देखिये’ कहना बरबस ही चेहरे पर मुस्कान ला देता है। मैं जगत और राजेश से आजतक वाकिफ नहीं था लेकिन इस उपन्यास को पढ़ने के बाद इन दोनों के दूसरे कारनामें जरूर पढ़ना चाहूँगा।
जगत का किरदार और उसका जीवन जीने का फलसफा बिल्कुल जुदा है। वह चूँकि खुद अपराधी है तो कई बार अपराधियों को सबक सिखाने के बाद छोड़ भी देता है। कई बार वह अपनी हासिल की गयी जानकारी अपने तक ही रखता है और उसे विराट तक नहीं देता है। चूँकि वह बुजुर्ग है और उसके पास ऐसे मामलों से जूझने का अनुभव है तो इस अनुभव की छाप उसके आचरण से दिखती है। वह कई ऐसी चीजें करता है जिससे जहीर और विराट दोनों ही हैरान हो जाते हैं और उसकी तारीफ करते नहीं थकते हैं। इससे पाठक के रूप में आप भी उसके विषय में और ज्यादा जानने के लिए लालायित हो जाते हो।
उपन्यास में केन्द्रीय खूफिया विभाग से जुड़े अन्य किरदार भी रोचक हैं। इनकी अपनी दुनिया है और इस उपन्यास को पढ़ने के बाद आपके मन में इस दुनिया में और ठहरने की इच्छा बलवती हो जाती है। और यह काम आप केवल इस श्रृंखला के उपन्यासों को पढ़कर ही कर सकेंगे।
कहानी में दिखाए जासूस जाँबाज तो हैं लेकिन निष्टुर नहीं हैं। यह लोग मानवता को यह सबसे ऊंचे दर्जा देते हैं। कभी कभी तो इनके चरित्रों को देखकर हैरानी होती है। ऐसा नहीं है कि लेखक को नहीं पता कि इनके चरित्र हैरान करने वाले हैं। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि लेखक ने उपन्यास में मौजूद कई ऐसे चरित्रों, जो कि किसी मजबूरी वश अपराध में लिप्त थे, से यह हैरानी व्यक्त करवाई है। राजेश, जिसको की केंद्रिय खूफिया विभाग के जायदातर लोग अपना आदर्श मानते हैं, के विषय में तो एक कथन कुछ यूँ है:
अगर अंग्रेजो का जमाना होता तो शायद वह नौकरी ही नहीं करते। वह एकदम मानवतावादी इनसान हैं और अपराधी से भी शत्रु जैसा व्यवहार नहीं करते। (पृष्ठ ४४)
‘ओह दीदी! यह अपराधी हैं यहाँ मेहमान नहीं हैं। इस मामले में मैडम मुसीबत बिल्कुल ठीक कहती हैं।’
“क्या कहती हैं?”
…
“कहा करती हैं चर्कवर्ती चीफ हैं, इसलिए कुछ गनीमत है। उनके बाद राजेश चीफ होंगे तो यहाँ के लॉकअप फाइव स्टार होटल बन जायेंगे “(पृष्ठ ७१)
केन्द्रीय खूफिया विभाग के ज्यादातर लोग अपराधियों के प्रति इसी सहानुभूति का प्रदर्शन करते दिखते हैं। वह उनसे घृणा नहीं करते हैं बल्कि उनको समझकर उनको सुधरने का मौका भी देते हैं।
अंत में यही कहूँगा कि भले ही ‘बदला’ उपन्यास की कहानी मुझे औसत लगी लेकिन यह ओमप्रकाश शर्मा जी द्वारा रचे गये किरदारों के प्रति उत्सुकता जगाती है। इन किरदारों से मैं दोबारा जरूर मिलना चाहूँगा।
रेटिंग: 2/5
अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा? अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।
आपके लिए कुछ प्रश्न:
प्रश्न 1: आपका सबसे पसंदीदा जासूस कौन सा है?
प्रश्न 2: क्या आपने दुर्गा प्रसाद खत्री जी के उपन्यासों को पढ़ा है? आपके सबसे पसंदीदा उपन्यास कौन से थे?
प्रश्न 3: क्या आपने जगत श्रृंखला के अन्य उपन्यासों को पढ़ा है? अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत कर्वाइयेगा?
जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा जी के दूसरे उपन्यासों के विषय में मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा
हिन्दी पल्प साहित्य की दूसरी कृतियों के प्रति मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
हिन्दी पल्प साहित्य
©विकास नैनवाल ‘अंजान’
ओमप्रकाश शर्मा जी के ज्यादा उपन्यास तो नहीं पढे, लेकिन जितने पढे हैं उनमें से 50% बहुत अच्छे थे और बाकी व्यर्थ थे।
प्रस्तुत उपन्यास भी मध्यम स्तर का लगा।
अच्छी समीक्षा, धन्यवाद ।
जी आभार। हो सके तो अच्छे उपन्यासों के नाम साझा कीजिये। मुझे थोड़ा गाइडेंस मिल जाएगी।
अफसोस है कि जब ops के नावेल सामने आए, मैंने दूसरी किताबें ले ली। मैं उन्हें कभी नहीं पढ़ पाया।🙏😔 अब आप की पोस्ट के बाद कोशिश करूंगा। एक कारण और भी था… उस समय के उभरते हुए vps or smp के मुकाबले रफ्तार सुस्त लगती थी।
जी रफ़्तार की कमी तो इसमें भी है लेकिन मैं अगाथा क्रिश्टी का भी लुत्फ़ ले लेता हूँ तो इस कारण रफ्तार मेरे लिए इतनी मायने नहीं रखती है। उपन्यास में रहस्य न हो और रफ्तार भी न हो तो उपन्यास में आगे बढ़ते जाने के लिए कोई कारण नहीं बचता। ऐसे उपन्यास ही नहीं पढ़ पाता हूँ।
आपको यह तथ्य रुचिकर लगेगा विकास जी कि मैं स्वयं 1988 से 1992 तक कलकत्ता में उसी भवन में रहता था जिसमें हिन्दी का समाचार-पत्र 'सन्मार्ग' छपता था । उसी अवधि में यह उपन्यास धारावाहिक रूप में (रविवार के परिशिष्ट में) प्रकाशित होता था और मैं प्रत्येक रविवार को इसकी नई कड़ी पढ़ता था । पुस्तकाकार में कहीं मिलेगा तो पुनः पढूंगा । आपकी इस समीक्षा ने तीन दशक पुरानी यादें ताज़ा कर दीं । जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा जी के कुछ ही उपन्यास मैंने पढ़े हैं । उनकी कहानियां साधारण ही होती थीं लेकिन विभिन्न पात्रों (विशेषतः जासूसों) का उदात्त मानवीय पक्ष उनमें भलीभाँति उजागर होता था । यह उपन्यास भी उसी श्रेणी में आता है । अच्छी समीक्षा की है आपने । आभार एवं अभिनंदन ।
वाह सर! यह जानकर अच्छा लगा कि आपने इस उपन्यास को सिलसिलेवार सन्मार्ग में पढ़ा था। अगर हो सके तो उन दिनों के अपने इस विषय से जुड़े संस्मरणों को अपने ब्लॉग पर साझा कीजियेगा। आपकी इस बात से मैं सहमत हूँ कि उन्होंने जासूसी किरदारों के जासूस होने के साथ उनके एक अच्छे इनसान होने को ज्यादा महत्ता दी है। उनके किरदार अपराधी को समझने की कोशिश करते और उनसे इंसानियत बरतते हुए दिखते हैं जिससे कई बार अपराधी अपराध का रास्ता छोड़ अच्छाई का रास्ता अपना लेता है। ब्लॉग पर आने का शुक्रिया। आते रहियेगा।